रविवार, 24 नवंबर 2013

                                                             तीसरा अध्याय 
                                             राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर
                                                          (सन्दर्भ- अछूतोद्धार)


यह हम देख चुके हैं कि राहुल सांकृत्यायन सनातनी साधु से आर्य समाजी और फिर बौद्ध बने और अन्त में कम्युनिस्ट हो गये थे, जबकि डा. आंबेडकर प्रगतिशील हिन्दू रहे और बाद में उन्होंने बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया था। पर, एक समानता थी कि दोनों विद्वान भारत में समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के स्वप्न द्रष्टा थे। यहाँ हम इस प्रश्न पर विचार करेंगे कि अछूतोद्धार की दृष्टि से दोनों के विचार और तरीके क्या थे?
राहुल (1893-1963) और आंबेडकर (1891-1956) दोनों ही समकालीन थे, पर दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग थे। दोनों को एक-दूसरे से मिल भेंटने के अवसर बहुत कम मिले थे, शायद एकाध अवसर ही। जिस समय आंबेडकर ने महाड में चाबदार तालाब से पानी लेने के अधिकार के लिये अछूतों का सत्याग्रह (1927) किया था, उस समय राहुल आर्यसमाज के प्रचारक स्वामी थे और ईश्वर तथा वैदिक वर्णव्यवस्था के समर्थक थे। वे वेद और ईश्वर से मुक्त हो 1930 में श्रीलंका में बौद्ध हुए थे। उसके पांच साल बाद आंबेडकर ने येवला में हिन्दूधर्म छोड़ने की घोषणा की थी। इस समय तक भारत में आंबेडकर के नेतृत्व में अछूत आन्दोलन सीधी लड़ाई ;क्पतमबज ।बजपवदद्ध के रूप में आरम्भ हो गया था। इसके भी काफी पहले स्वामी अछूतानन्द का ‘आदि हिन्दू आन्दोलन’ उत्तर भारत में फैल चुका था। किन्तु, इन आन्दोलनों पर हम राहुल का कोई विचार उनकी रचनाओं में नहीं देखते हैं। समाजवाद पर आधारित उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें ‘साम्यवाद ही क्यों’, ‘दिमागी गुलामी’, ‘तुम्हारी क्षय’ और ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ भी 1934 और 1944 के बीच प्रकाशित हुईं थीं। इन पुस्तकों में अछूतोद्धार का जिक्र तो मिलता है, पर वह जिक्र आंबेडकर के आन्दोलन से पूरी तरह अनभिज्ञ दिखायी देता है। इन पुस्तकों में अछूतों का जिक्र भी सतही तौर पर हुआ है। समकालीन कम्युनिस्ट धारा वर्ग-संघर्ष की थी। जाति के सवाल को वह उसी में शामिल मानती थी। उसका विचार था कि क्रान्ति होने पर जाति की समस्या स्वतः हल हो जायगी। अछूतोद्धार को लेकर राहुल का सतही चिन्तन इसी धारा से प्रभावित था। पर, इसके बावजूद उन्होंने ‘तुम्हारी क्षय’ (1939) में ब्राह्मणवाद और हिन्दू धर्म की दकियानूसी रीतियों का खण्डन किया है। इससे वे निस्सन्देह समकालीन कम्युनिस्ट विचारकों में सबसे ज्यादा प्रगतिशील और क्रान्तिकारी नजर आते हैं। पर, क्रान्ति का तेवर अछूतों के मामले में उनमें बहुत कम नजर आता है। जब वे चैंतीस साल बाद 1943 में अपने पितृ ग्राम कनैला गये, तो उन्होंने देखा कि वहां के भर (पासी) समुदाय ने सुअर-पालना बन्द कर दिया था। इस पर उनकी टिप्पणी थी- ‘‘सत्ताईस बरस पहले भर लोग सुअर पाला करते थे, मगर अब सारे जिले में और आसपास के दूसरे जिलों में भी उन्होंने सुअर पालना बिल्कुल छोड़ दिया है। इससे समाज में उनका स्थान पहले से कुछ ऊँचा हुआ है, इसका तो मुझे पता नहीं, हाँ जीविका के एक साधन से वे वंचित जरूर हो गये। सुअरी एक-एक बार में बीस-बीस बच्चे देती है और साल में तीन बार। पुष्ट भोजन और पैसे की आमदनी का यह एक अच्छा जरिया था।’’1
राहुल की यह टिप्पणी अछूतोद्धार की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। गन्दे पेशों को छोड़ना ही उस समय मुख्य अछूत आन्दोलन था। इसी प्रकार की एक टिप्पणी एक ब्राह्मण ने महाराष्ट्र में की थी, जब आंबेडकर के आन्दोलन की वजह से अछूतों ने गांव मंे मरे हुए पशुओं को उठाना बन्द कर दिया था। आंबेडकर के अनुसार, ‘‘एक चितपावन ब्राह्मण ने पूना के ‘केसरी’ अखबार (तिलक का पत्र) में कई पत्र प्रकाशित करके अछूतों को बरगलाना शुरु कर दिया कि मृत पशुओं के न उठाने से उनका बड़ा नुकसान होगा, क्योंकि पशु की हड्डियों, दांतों, सींगों और खाल आदि के बेचने से पांच-छह सौ रुपया वा£षक लाभ होता है।’’2 अपने नागपुर भाषण में इसका जवाब देते हुए आंबेडकर ने कहा था, ‘‘अरे भले लोगों, तुम हमारे लाभ की चिन्ता क्यों करते हो? अपना लाभ हम खुद सोच लेंगे। अगर तुम्हें इस काम में भारी लाभ दिखायी देता है, तो तुम अपने सम्बन्धियों को क्यों नहीं सलाह देते कि वे मरे हुए पशुओं को उठाकर पांच-छह सौ रुपया वा£षक कमा लिया करें? यदि वे ऐसा करें तो इस लाभ के अलावा उन्हें पांच सौ रुपया इनाम मैं खुद दूंगा, तुम जानते हुए इस मुनाफे को क्यों छोड़ते हो?’’3
‘पूना-पैक्ट’ (1932) के समय राहुल सांकृत्यायन इंग्लैण्ड में थे। यह एक ऐसी घटना थी, जिसने दलित समस्या के प्रति पूरे विश्व का ध्यान आक£षत किया था। इस घटना के बारे में राहुल ने ‘अपनी जीवन यात्रा’ में एक रोचक टिप्पणी लिखी है, जिससे उनके विचारों का पता चलता है। यह टिप्पणी इस प्रकार है- ‘‘27 सितम्बर को गाँधी जी के उपवास-भंग की खबर सुनकर लन्दन के सभी भारतीयों को बहुत प्रसन्नता हुई। मेकडानल्ड के निर्णय के विरोध में गाँधी जी को यह उपवास करना पड़ा था। अछूतों के ऊपर हिन्दुओं ने हजारों वर्षों से जुल्म कर रखा है और उन्हें मनुष्य से पशु की अवस्था में पहुँचा दिया है, इसे देखकर अछूतों को ज्यादा सजग रहने की जरूरत से कौन इनकार कर सकता है। गाँधी जी के रास्ते से अछूतों की समस्या नहीं हल हो सकती, यह भी निश्चित है। फिर अछूत नेता कोई दूसरा रास्ता अख्तियार करना चाहें, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। गाँधी जी ने इसीलिये हड़ताल की थी कि अंग्र्रेजी शासक-वर्ग ने पृथक-निर्वाचन की नीति को मुसलमानों के बाद अब अछूतों के लिये भी स्वीकृत किया था, जिसका स्पष्ट अभिप्राय यही था कि हिन्दुस्तान की शक्ति और छिन्न-भिन्न हो जाय। जिस दिन आमरण उपवास की खबर लन्दन के अखबारों में निकली, वहाँ बहुत सनसनी फैली हुई थी।’’4
राहुल की इस टिप्पणी में आंबेडकर का कहीं जिक्र नहीं है, जो पूना-समझौता में मुख्य नेता थे। उन्होंने इसे अछूत बनाम गांधी के रूप में देखा था और गांधी के उपवास-भंग की खबर से वे प्रसन्न हुए थे। आंबेडकर की पृथक निर्वाचन की मांग को वे अंग्रेजी शासक वर्ग की हिन्दुस्तान की शक्ति को छिन्न-भिन्न करने वाली नीति मानते थे। यह मान्यता उसी सोच की छाया थी, जो आंबेडकर की मांग के विरुद्ध भारत के हिन्दू नेताओं की थी। यहां राहुल सचमुच हिन्दुओं के साथ खड़े थे।

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राहुल सांकृत्यायन के लेखों का एक संकलन ‘‘दिमागी गुलामी’’ नाम से 1937 में छपा था। डा. आंबेडकर उस समय तक महाड़ (1927) में सामाजिक समानता, नासिक (1930) में धा£मक समानता और (1932) में राजनैतिक समानता के लिये लड़ाई लड़ चुके थे। उनकी ‘‘भारत में जाति’’ तथा ‘‘जाति का विनाश’’ नाम से दो पुस्तकें भी चर्चा में आ चुकी थीं। पर, राहुल अपने इस समय के लेखन में आंबेडकर आन्दोलन से उतने भी परिचित दिखायी नहीं देते, जितने कि प्रेमचन्द थे। इसका कारण सम्भवतः यह हो सकता है कि राहुल का अधिकांश समय घुमक्कड़ी में बीता। जिस समय ये आन्दोलन चल रहे थे, राहुल भारत से बाहर ज्ञान-विज्ञान तलाश रहे थे। तो भी, हमें ‘दिमागी गुलामी’ में अछूत समस्या पर उनके विचार यदा-कदा मिलते हैं और ‘अछूतों को क्या चाहिए’ शीर्षक से एक पूरा लेख भी मिलता है। इन लेखों से हमें राहुल के माक्र्सवादी दृष्टिकोण से किये गये चिन्तन का पता चलता है और यह भी पता चलता है कि वे मौजूदा समाज व्यवस्था को बदलना चाहते थे। ‘हिन्दू-मुस्लिम-समस्या’ लेख में वे उस समय के लिये उतावले नजर आते हैं, ‘‘जब जातिभाव, छुआछूत मिट जायगी और धर्म एवं वेद अतीत की बात हो जायंगे। रोटी-बेटी, वेश-भूषा, भाषा-भाव सब एक हो जायंगे।’’5
यह बात सच है कि सामाजिक बन्धनों को तोड़े बगैर कोई क्रान्ति नहीं होगी। इसलिये सामाजिक बन्धनों को बरकरार रखकर, समाज को बदलने की बात करने वाला राहुल की दृष्टि में साम्यवादी नहीं है। ऐसे छद्म लोगों को सावधान करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘साम्यवादी एक नया संसार, एक नया समाज बनाना चाहते हैं, इसलिये उन्हें हर तरह की कुर्बानियों के लिये तैयार रहना चाहिए। अगर आप शादी-ब्याह अपनी जाति में रखना चाहते हैं, अगर आप मुण्डन और जनेऊ अपनी जाति के रिवाज के मुताबिक करना चाहते हैं, अगर आप खान-पान में स्वयं पाकी रहना चाहते हैं तो आप जैसे साम्यवादी से साम्यवाद को नुकसान ही पहुँचेगा।’’6
उनकी नजर में सामाजिक रूढि़यों को तोड़ने का काम जेल जाने या फाँसी चढ़ने से भी ज्यादा साहस का काम है। वे लिखते हैं- ‘‘साम्यवादियों को इसे तो पहला सामाजिक नियम बना देना चाहिए कि इसमें आने वाला हिन्दू हो या मुसलमान, छूत हो या अछूत, उसे एक साथ खाना-पीना चाहिए। उसको यह न ख्याल करना चाहिए कि साधारण लोग क्या कहेंगे। किसी भी सामाजिक क्रान्ति में शामिल होने वालों को कुछ कड़वा-मीठा सहने के लिये तैयार होना ही चाहिए। लोग जेल जाने और फाँसी चढ़ जाने को बड़ी हिम्मत की बात कहते हैं। समाज की रूढि़यों को तोड़ना और उसके द्वारा उनकी आँखों में काँटे की तरह चुभना जेल और फाँसी से भी ज्यादा साहस का काम है।’’7
इसी लेख में राहुल लिखते हैं कि वे एक गांव में गये, जहां लोगों ने उनसे रूस के बारे में जानना चाहा। उन्होंने जब यह बताया कि कैसे वहां के किसान सामूहिक खेती करते हैं और कैसे वहां के नागरिकों को शिक्षा, चिकित्सा, आवास और रोजगार की हर सुविधा उपलब्ध है, तो उन्हें बड़ा अच्छा लगा। बाद में, लोगों की प्रतिक्रिया के लिये यह भी जोड़ा- ‘‘लेकिन रूस में बहुत सी खराब बातें भी हुई हैं, वहां घुरहू तिवारी की लड़की से मंगरू चमार का लड़का सरेआम ब्याह कर लेता है और उसमें कोई बाधक नहीं हो सकता। वहां खाने-पीने में जात-पांत का सवाल नहीं है। मंगरू चमार अगर रसोई अच्छी बनाना जानता है, तो वही बनायेगा और गांव के ब्राह्मण, राजपूत, सबको एक साथ बैठकर खाना पड़ेगा। अगर बड़ी जाति वालों ने जरा सी आनाकानी की, तो बहुत सम्भव है कि उन्हें देश से निकाल दिया जाय।’’8 वे आगे कहते हैं कि उन्होंने समझा था कि ऐसी बात सुनकर लोग भड़क उठेंगे। ‘‘लेकिन वहां के लोगों को कहते सुना कि अरे, इसमें क्या रखा है, आदमी की तरह सुखपूर्वक जीवेंगे और चिन्ता के बोझ से दिल तो हल्का होगा। कुछ तो कहने लगे- बाबा, यह हमारे यहां कब होगा? हमारी जिन्दगी में हो जायगा कि नहीं।’’9
राहुल ने इस लेख में साम्यवाद और साम्यवादियों के बारे में जितनी बातें कही हैं, वे सारी बातें आंबेडकर भी 1936 में अपने बहुच£चत भाषण ‘‘जाति का विनाश’’ (एनीहिलेशन आफ कास्ट) में कह चुके थे। उदाहरण के लिये, वे एक स्थान पर कहते हैं-
‘‘मेरी राय में, इस बात मंे कोई सन्देह नहीं है कि समाज व्यवस्था में बदलाव लाये बगैर विकास की सम्भावनाएँ अत्यन्त क्षीण हैं। आप समाज को रक्षा या अपराध के लिये प्रेरित कर सकते हैं। लेकिन जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई निर्माण नहीं कर सकते- आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते, आप नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते। जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई भी निर्माण करेंगे, वह चटक जायगा और कभी भी पूरा नहीं होगा।’’10
आंबेडकर इस उपाय को पर्याप्त नहीं मानते थे कि रोटी-बेटी का सम्बन्ध व्यवहार में आने से जाति-व्यवस्था समाप्त हो जायगी। उन्होंने कहा कि हमें उस कारण को खोजना होगा, जो अधिकांश हिन्दुओं को रोटी-बेटी का सम्बन्ध करने से रोकता है।11 जाति-व्यवस्था का विनाश इतना आसान नहीं है। राहुल जी 1937 में जिस साम्यवाद की बात कर रहे थे, वह यदि आसान होता, तो अब तक भारत में कभी का साम्यवाद आ चुका होता। यह क्यों आसान नहीं है? आंबेडकर कहते हैं- ‘‘जाति ईंटों की दीवार या कांटेदार तारों की लाइन जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है, जो हिन्दुओं को मेल-मिलाप से रोकती हो और जिसे तोड़ना आश्वयक हो। जाति एक धारणा है और यह एक मानसिक स्थिति है।’’12 उन्होंने कहा कि असली शत्रु वे लोग नहीं हैं, जो जाति को मानते हैं, बल्कि वे शास्त्र हैं, जिन्होंने जाति-धर्म की शिक्षा दी है। रोटी-बेटी का सम्बन्ध न करने या समय-समय पर अन्तरजातीय खान-पान और अन्तरजातीय विवाहों का आयोजन न करने के लिये लोगों की आलोचना या उनका उपहास करना वांछित उद्देश्य को प्राप्त करने का एक निरर्थक तरीका है। वास्तविक उपचार यह है कि शास्त्रों ने लोगों के धर्म, विश्वास और विचारों को ढालना जारी रखा, तो आप कैसे सफल होंगे?’’13
वस्तुतः राहुल इसी मत के थे। उन्होंने गाँधी की आलोचना इसी आधार पर की थी कि वे शास्त्रों में विश्वास करते थे। अपने लेख ‘गाँधीवाद’ में वे लिखते हैं- ‘‘सबसे बड़ी बेवकूफी, जिसे गांधीवाद ने सहारा और उत्तेजना दी है, वह धर्म की कट्टरता है। लोग कहेंगे कि गांधी जी ने अछूतोद्धार- जैसे आन्दोलन उठाकर धर्म के विचारों में भी तो क्रान्ति पैदा की है। अछूतोद्धार तो मालवीय जी भी अपने ढंग से करना चाहते हैं और साथ में हिन्दू यूनिव£सटी में बीस लाख रुपया लगाकर एक नया विश्वनाथ तैयार करना चाहते हैं। क्या यह बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दू नेता की सबसे बड़ी बेवकूफी नहीं है? गांधी जी के अछूतोद्धार का महत्व तब बहुत घट जाता है, जब हम उसके साथ ऋषि-मुनियों और उनके ग्रन्थ गीता आदि के गौरव को उनके द्वारा खूब बढ़ाया जाता देखते हैं। जिन ग्रन्थों में अछूतपने की बात भरी पड़ी है और जिन ऋषि-मुनियों ने अपने आश्रमों के आस-पास मनुष्य नामधारी दास-दासियों के ऊपर सहòाब्दियों तक अमानुषिक अत्याचार होते देखकर भी अपनी तपस्या भंग न की, उनके ग्रन्थ अछूतोद्धार के बाधक छोड़, साधक कैसे हो सकते हैं?’’14 उनके लिये यह समझना मुश्किल था कि ‘‘शास्त्र और ऋषि-मुनियों के गौरव में भी कोई बट्टा न आने पाये और साथ ही मुनियों का यह सबसे बड़ा अत्याचार भी हमारे समाज से विदा हो जाय।’’15
आंबेडकर जानते थे कि लोगों से जातपांत त्यागने के लिये कहने का अर्थ उनको मूल धा£मक धारणाओं के विपरित चलने के लिये कहना है।16 क्योंकि उनके अनुसार, शास्त्रों को पवित्र और ईश्वरीय माना जाता है, इसलिये उस पवित्रता और देवत्व को नष्ट करना होगा, जो जाति-व्यवस्था में समाया हुआ है। इसका अर्थ यह है कि आपको ‘‘शास्त्रों और वेदों की सत्ता समाप्त करनी होगी।’’17 यह सत्ता किस तरह समाप्त होगी? आंबेडकर का विचार यह है कि ‘‘इसके लिये आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा, क्योंकि वेद और शास्त्र किसी भी तर्क से (आदमी को) अलग हटाते हैं और किसी भी नैतिकता से वंचित करते हैं।’’18 राहुल सांकृत्यायन वेद-शास्त्रांे की सत्ता को ही ‘दिमागी गुलामी’ कहते हैं।
यही दिमागी गुलामी जाति व्यवस्था को सुरक्षित रखती है। राहुल यहां आंबेडकर से सहमत दिखायी देते हैं या दूसरे शब्दों में आंबेडकर की तरह राहुल भी मानते हैं कि ‘‘शुद्ध राष्ट्रीयता तब तक आ ही नहीं सकती, जब तक आप जाति-पांति तोड़ने पर तैयार न हों।’’19
डा. आंबेडकर धर्म की क्रान्ति में नहीं, समाजवादी व्यवस्था में दलित-मुक्ति मानते थे। धर्म संस्कृति को बदलता है, और इसी बदलाव के लिये उन्होंने दलितों के लिये बौद्धधर्म को स्वीकार किया था। पर, उनकी दृष्टि में आ£थक विकास और मुक्ति समाजवादी व्यवस्था में ही है। वे भारत में मजदूरों की सरकार चाहते थे, न कि सामन्तों और पूंजीपतियों की।20
हम ‘दिमागी गुलामी’ में देखते हैं कि राहुल भी साम्यवाद में ही खेतिहर-मजदूरों की आ£थक मुक्ति मानते हैं। वे लिखते हैं, ‘‘खेतिहर-मजदूरों को ख्याल करना चाहिए कि उनकी आ£थक मुक्ति साम्यवाद ही से हो सकती है और जो क्रान्ति आज शुरु हुई है, वह साम्यवाद पर ही ले जाकर रहेगी। उसके सिवा भले दिनों को दिखलाने वाला कोई दूसरा रास्ता नहीं है।’’21
आंबेडकर समाजवादी थे और राहुल साम्यवादी। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि समाजवाद के रास्ते ही साम्यवाद आयगा। दोनों व्यवस्थाएँ जाति और वर्ग विहीन समाज को मूर्त रूप देती हैं। दलित वर्गों में सर्वहारा और खेत मजदूरों की संख्या सबसे ज्यादा है। पर, जातीय भेदभाव के कारण अन्य जातियों के सर्वहारा और खेत मजदूर उनके साथ एकता नहीं बनाते हैं। जाति व्यवस्था भारत के सारे मजदूरों को एक नहीं होने देती। आंबेडकर ने दलितों को यह सलाह दी थी कि वे अपने आ£थक हितों के लिये जाति के रूप में नहीं, बल्कि एक वर्ग के रूप में संगठित हों और संघर्ष करें।22 उन्होंने 1942 में कहा था कि दलित वर्ग आन्दोलन को अन्य समुदाय के मजदूर संगठनों के साथ मिलकर पूंजीपतियों, जमींदारों और अन्य शोषक वर्गों के खिलाफ एक साझा मंच बनाने की जरूरत है।23
बिहार में लगभग उसी काल में खेत-मजदूरों का एक ऐसा ही मंच काम भी कर रहा था, जिसके नेता दलित जातियों के लोग थे। लेकिन, राहुल इस मंच का विरोध कर रहे थे। यह विरोध उनके लेख ‘खेतिहर-मजदूर’ में मौजूद हैं। वे लिखते हैं, ‘‘बिहार में खेतिहर-मजदूरों का जो आन्दोलन चला है, उसके प्रवर्तकों में कुछ ‘हरिजनों’ के नेता भी शामिल हैं। उन भाइयों से मेरा विनम्र निवेदन है कि खेतिहर-मजदूर के नाम से अपना संगठन करके, हरिजन भाई लोग (मैं इस शब्द से बहुत घृणा करता हूँ, लेकिन अपने अर्थ को स्पष्ट करने के लिये इसका इस्तेमाल कर रहा हूँ) गलती कर रहे हैं। उनको सीधा-शुद्ध अपना एक संगठन रखना चाहिए, क्योंकि उनकी समस्याएँ इतनी विकट हैं और सामाजिक, धा£मक और आ£थक सभी क्षेत्रों में फैली हुई है कि यदि वे खेतिहर-मजदूर के नाम पर छूत-अछूत सबको जमा करने लगेंगे, तो वे हवा हो जायेंगे। जहाँ कहीं कुछ भी पर्ती बकाश्त, जिरात या जंगल की जमीन मिलेगी, वह सभी खेतिहर-मजदूरों के लिये यदि दे दी जायगी, तो नतीजा यह होगा कि छूत जाति वाले (सवर्ण), जिनकी पहंुच आसानी से अधिकारियों तक हो सकती है, उन जगहों को ले लेंगे और हरिजन के पल्ले बहुत कम पड़ेगा।’’24 अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे आगे लिखते हैं- ‘‘छूत जाति के खेतिहर-मजदूरों की अवस्था उतनी हीन और अन्यायपूर्ण नहीं है, जैसे कि अछूत कही जाने वाली जातियों की। छूत जाति वाले पान की दूकान खोल सकते हैं, हलवाई भी बन सकते हैं, होटल भी चला सकते हैं और पचास तरह के और काम कर सकते हैं। प्राइवेट नौकरियों में भी उनको आसानी है, लेकिन वही बात अछूत कही जाने वाली जातियों के लिये नहीं कही जा सकती। सामाजिक अत्याचार, जो अछूत कही जाने वाली जातियों पर हो रहा है, उसके कारण उनकी आ£थक उन्नति के सभी मार्ग बन्द हैं, उनकी सारी शक्ति चाहिए तो थी कि इस ओर लगती, जिससे वे अपने को शिक्षा और आ£थक उन्नति के दूसरे साधनों को प्राप्त कर, अपनी अवस्था को कुछ बेहतर बनाते और साथ ही रास्ते में पड़ने वाली रुकावटों को दूर करते। ऐसे समय में किसानों के अत्याचारों को लेकर झगड़ा पैदा करने में अपनी ही शक्ति निर्बल होगी।’’25
यहाँ राहुल कहते तो ठीक हैं कि सवर्णों की समस्याएँ उतनी नहीं हैं, जितनी अछूतों की हैं। सवर्ण हर क्षेत्र में जा सकते हैं, जबकि अछूतों के लिये सभी रास्ते बन्द हैं। पर, सवाल यह विचारणीय है कि खेत-मजदूर की लड़ाई जातीय लड़ाई नहीं है, वह वर्ग चेतना की लड़ाई है। इस लड़ाई में जाति के नाम पर दलितों को अलग करना वर्गीय संघर्ष को कमजोर करना है। एक तरफ हम वर्ग-संघर्ष में दलितों को शामिल करने की बात करते हैं, किन्तु दूसरी तरफ जब दलित-मजदूर अन्य समुदायों के मजदूरों को लेकर अपना मोरचा बनाते हैं, तो उन्हें राहुल यह सलाह देते हैं कि इससे उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा और वे अपनी शक्ति निर्बल कर लेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि सवर्णों के मजदूर आन्दोलन में दलित मजदूर शामिल हो सकते हैं, पर दलित मजदूरों को अपना पृथक मजदूर आन्दोलन नहीं चलाना चाहिए। वे अपने सामाजिक आन्दोलन तक ही सीमित रहें। शायद यह नेतृत्व की समस्या हो सकती है। राहुल नहीं चाहते थे कि सवर्ण मजदूर दलित नेताओं के नेतृत्व में आन्दोलन करें। हो सकता है कि यह मन्तव्य राहुल का न रहा हो और वे सचमुच अछूतों को सावधान करना चाहते थे कि यदि वे सवर्णों को अपने आन्दोलन से जोड़ेंगे, तो सवर्ण ही अपने प्रभाव से सब कुछ हासिल कर लेंगे, अछूतों को कुछ नहीं मिलेगा। पर, जिस साम्यवाद के राहुल पक्षधर थे, उस दृष्टि से उनके इस मत को साम्यवाद के पक्ष में नहीं माना जा सकता।
जैसा कि कहा गया है कि दलितों की सबसे बड़ी आबादी खेत-मजदूरों और लघु किसानों की है, तो काफी हद तक भारत की कृषि-समस्या दलित समस्या से भी जुड़ी हुई है। राहुल ने लिखा है कि खेतिहर-मजदूरों के वेतन में वृद्धि तभी सम्भव है, जब किसानों की आमदनी बढ़े। पर, किसानों के लिये और जमीन कहां से आये? उनके पास जो दो-चार बीघे जमीन है, वह उनके लिये भी पर्याप्त नहीं, फिर वे खेतिहर-मजदूरों को क्या देंगे।26 इसका हल उनकी दृष्टि में यह है- ‘‘हमारी समस्याएँ तो तभी हल होंगी, जब जमींदारी हटा दी जाय, खेतों पर भी किसी व्यक्ति का अधिकार न होकर राष्ट्र का अधिकार हो। गांव के सभी खेतों की मेड़ें हटाकर एक खेत बना दिया जाय और ट्रैक्टर के जरिये खेत जोते जायँ, लोग मिलकर सामूहिक खेती करें और उस खेती में नये आविष्कारों तथा कृषि-उपयोगी साधनों को वर्ता जाय। तभी जाकर हम एक बीघे में जापान की तरह सात सौ, आठ सौ रुपये की चीज पैदा कर सकेंगे और तभी जाकर यदि एक-दो जिले में सूखा पड़ जाय या बाढ़ आ जाय, तब भी दूसरे जिले की पैदावार से लोगों को भूखा नहीं मरना पड़ेगा।’’27
राहुल यहां छोटी जोतों को बड़ी जोतों में बदलने और सामूहिक रूप से खेती करने की बात करते हैं, साथ ही वे यह भी कहते हैं कि खेती नयी तकनीक से हो और खेतों पर राष्ट्र का अधिकार हो। राहुल किसानों और खेतिहर-मजदूरों को अलग करके देखते हैं और मजदूरों को किसानों से झगड़ा मोल न लेने को कहते हैं।28 मैं यह कहना ठीक नहीं समझता कि राहुल को भारत की कृषि-समस्या की सम्यक जानकारी नहीं थी, पर वे राष्ट्रीयकरण और निजीकरण दोनों के साथ कैसे रह सकते हैं, यह समझ से परे है।
भारत की कृषि समस्या पर आंबेडकर ने 1918 में ‘‘स्माल होल्ंिडग्स इन इंडिया एण्ड दियर रमेडीज़’’ निबन्ध लिखा था, जिसमें उन्होंने काफी विस्तार से छोटी जोतों, चकबन्दी और खेतिहर-मजदूरों की समस्या पर विचार किया है। इस निबन्ध में वे लिखते हैं कि जमीन पर जनसंख्या का सबसे अधिक दबाव सारी दुनिया में किसी और देश में नहीं मिलता, जितना कि भारत में मिलता है। उनके अनुसार, यह दबाव इसलिये है कि यहाँ की अधिसंख्य जनता कृषि पर निर्भर करती है। खेतिहर जनता की संख्या बहुत अधिक है और भूमि कम है।29 आंबेडकर के अनुसार, उत्तराधिकार के कानून से जमीन और भी टुकड़ों में बंट जाती है, क्योंकि जब खेती का ही धंधा करना है, तो जमीन का छोटा टुकड़ा ही बेहतर है।30 खेतिहर जनता छोटे से खेत पर भी पैदावार के काम में अधिक से अधिक लगना चाहती है, तो भी उनमें से बड़ा भाग निश्चित रूप से निठल्ला रहेगा ही। निठल्ली जनता कमाये, चाहे न कमाये, उसे जीवित रहने के लिये रोटी चाहिए ही। इसलिये वे कहते हैं कि निठल्ला मजदूर एक नासूर की तरह है, क्योंकि वह हमारे राष्ट्रीय लाभांश में वृद्धि करने की बजाय, जो कुछ थोड़ी बहुत बचत होती है, उसे भी खा जाता है।31
आंबेडकर इस मत के थे कि सवाल छोटी-बड़ी जोत का नहीं है, बल्कि पूंजी और पूंजीगत सामान बढ़ाने की जरूरत का है।32 वे कहते हैं कि हमारी कृषि-समस्या हमारी खराब सामाजिक अर्थ व्यवस्था के कारण पैदा हुई है।33 इसलिये उनका कहना है, ‘‘यदि हम फालतू श्रमिकों को उत्पादन की गैर-कृषि प्रणालियों में लगा सकें, तो हम एक बार में ही कृषि पर से दबाव कम कर सकेंगे और भूमि पर जो इतना अधिक महत्व दिया जाता है, वह भी कम हो जायगा। इसके अतिरिक्त जब ये श्रमिक उत्पादन की गैर-कृषि प्रणालियों में लग जायेंगे, तो आज की तरह से दूसरे के सहारे अपना पेट नहीं भरेंगे और वे न केवल कमायेंगे, बल्कि हमें सरप्लस उत्पादन भी देंगे, जिसका अर्थ होगा अधिक पूंजी।’’34
इसलिये आंबेडकर की दृष्टि में भारत की कृषि- सम्बन्धी समस्याओं का एक मात्र हल उसका औद्योगीकरण है। औद्योगीकरण से जोतों का आकार बढ़ाने को प्रोत्साहन तो मिलेगा ही, वह जमीन के उपविभाजन और विखण्डन को भी रोकेगा।35 उनके अनुसार, भारत में खतरा अत्यधिक कृषि का है।36
आंबेडकर चाहते थे कि कृषि राज्य का उद्योग हो।37 इस तरह वे भूमि का राष्ट्रीकरण चाहते थे, जैसा कि राहुल चाहते थे। राहुल ने सामूहिक खेती की बात कही है, आंबेडकर कृषि के राष्ट्रीयकरण में सामूहिक फार्म की खेती के पक्षधर थे।38 वे चाहते थे कि गांव के लोगों को जाति या धर्म के भेदभाव के बिना पट्टे पर जमीन दी जाय और ऐसी रीति से पट्टे पर दी जाय कि कोई जमींदार न रहे, कोई पट्टेदार न रहे और न कोई भूमिहीन मजदूर रहे। पानी, जोतने-बोने के लिये पशु, उपकरण, खाद, बीज आदि की व्यवस्था फार्म की खेती के लिये राज्य करे और फार्म पर खेतीबारी सामूहिक फार्म के रूप में की जाय।39 इसे स्पष्ट करते हुए आंबेडकर आगे कहते हैं कि चकबन्दी और काश्तकारी के कानून इतने बदतर हैं कि वे करोड़ों अछूतों के लिये सहायक नहीं हो सकते। केवल सामूहिक फार्म ही उनके लिये सहायक हो सकते हैं।40
राहुल सिर्फ किसानों के लिये क्रान्ति चाहते थे, खेतिहर मजदूरों के लिये नहीं। वे खेतिहर-मजदूरों को जमींदारों के इशारे पर किसानों के खिलाफ लड़ने वाला मानते थे।41 उनका कहना था कि किसानों की समस्या जब हल हो जायगी, यानी जब उनकी आमदनी बढ़ जायगी, तो खेतिहर-मजदूरों की समस्या भी हल हो जायगी, यानी उनकी मजदूरी में भी वृद्धि हो जायगी।42 लेकिन, आंबेडकर के पास किसानों और खेतिहर-मजदूरों दोनों की समस्या का हल था और वह है कृषि का तीव्र औद्योगीकरण, भूमि का राष्ट्रीयकरण और सामूहिक फार्म की खेतिबारी।
‘दिमागी गुलामी’ में राहुल सांकृत्यायन का एक लेख अछूतों के सम्बन्ध में भी है, जिसका शीर्षक है- ‘‘अछूतों को क्या चाहिए?’’ इस लेख में राहुल लिखते हैं, ‘‘इस शताब्दी के प्रारम्भ से ही हमारे कुछ नेताओं ने हरिजनों पर होने वाले अत्याचारों पर विचार करना प्रारम्भ किया है। सच पूछिए, तो महात्मा गांधी के उत्थान के पूर्व हमारे इन भाइयों के अभ्युदय के प्रश्न पर गम्भीरता से विचार ही नहीं किया गया था।’’43
यहां राहुल ने आंबेडकर, ज्योतिबा फुले और स्वामी अछूतानन्द की पूर्ण उपेक्षा करते हुए गांधी को अछूतों के उत्थान के लिये काम करने वाला पहला व्यक्ति माना है। इस पूरे लेख में उन्होंने ‘हरिजन’ शब्द का प्रयोग किया है, जिससे वे घृणा करते थे। वे आगे लिखते हैं, ‘‘हरिजन, जो अधिकतर खेत-मजदूर हैं, गुलामों से अच्छी परिस्थिति में नहीं हैं। थोड़े से रुपये उधार लेकर उन्हंे अपना शरीर बेचना पड़ता है। उनके मालिक, उनकी केवल वे ही आवश्यकताएँ पूरी करते हैं, जिनसे वे केवल प्राण धारण कर सकें। पुश्तें बीत जाती हैं, किन्तु वह कर्ज कभी अदा नहीं होता।’’44
किन्तु, वे खेत-मजदूर जब अपने मालिकों अर्थात् किसानों से अपने हकों के लिये लड़ते हैं, तो राहुल उनकी उपेक्षा करते हैं और कहते हैं कि ‘‘हम सभी क्रान्तियाँ एक साथ नहीं कर सकते।’’45
राहुल स्वीकार करते हैं कि ‘‘आ£थक स्वतन्त्रता ही सभी स्वतन्त्रताओं की जननी है और उस स्वतन्त्रता की छाया भी इन अभागों (अछूतों) से दूर रखी जाती है तो इनके उज्जवल भविष्य की आशा हम क्योंकर कर सकते हैं।’’46
1930 में अछूतों ने आंबेडकर के नेतृत्व में नासिक में धा£मक समानता का अधिकार प्राप्त करने के लिये सत्याग्रह किया था। पूना-पैक्ट के बाद गांधी और कांग्रेस ने भी अछूतों के लिये मन्दिर-प्रवेश की आवाज उठायी और परिणामतः 1935 में भारत सरकार ने कानून बनाकर अछूतों को मन्दिर में प्रवेश करने का अधिकार दिया। राहुल इसके विरुद्ध थे। वे इसी लेख में आगे लिखते हैं, ‘‘उनके लिये मन्दिरों के द्वार खोलने के लिये प्रचार करने में हमें समय नहीं खोना चाहिए। यह काम केवल व्यर्थ ही नहीं, बल्कि खुद हरिजनों के लिये खतरनाक भी है। यह पुरोहितों की चालाकी और धर्मान्धता ही है, जो कि उनकी वर्तमान अधोगति का कारण है। इन सरल मनुष्यों को जहन्नुम में जाने दीजिए। अगर आपके सामने अपने देश और अपने लिये कोई सच्चा आदर्श है तो उनकी आ£थक विषमताओं का अध्ययन कीजिए और उनको दूर करने की चेष्टा कीजिए।’’47
आंबेडकर भी मन्दिर-प्रवेश के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने नासिक में राम-रथ खींचने के लिये अछूतों के सत्याग्रह का नेतृत्व इसलिये किया था, क्योंकि एक हिन्दू होने के नाते अछूतों को भी समानता के आधार पर रथ खींचने का अधिकार मिलना चाहिए था। पर, ऐसा नहीं हो सका। हिन्दू समाज के धर्मगुरुओं ने अछूतों के प्रति गैर-हिन्दू जैसा कठोर व्यवहार किया। जब कांग्रेस मन्दिर-प्रवेश की मुहिम चला रही थी, तो आंबेडकर उसके समर्थन में नहीं थे। उन्हांेने 23 मई 1932 को पूना में कहा था कि उन्हें मन्दिरांे, या कुँओं अथवा अन्तरजातीय भोजों की जरूरत नहीं है, वरन् उन्हें सरकारी नौकरियों, भोजन, कपड़ा, शिक्षा और विकास के अन्य अवसर चाहिए।48
मन्दिर-प्रवेश की मुहिम पर उन्होंने गांधी और कांग्रेस के नेताओं को कहा था कि उनके लोग मात्र मन्दिर-प्रवेश से सन्तुष्ट नहीं होंगे। उन्होंने कहा कि गांधी और उनके समाज सुधारक मित्रों को चाहिए कि वे पहले सम्पूर्ण जाति-व्यवस्था पर प्रहार कर उसका सफाया करें और अछूतों को हिन्दू समाज में बिना पाबन्दियों के स्वीकार करें। उनका कहना था कि मन्दिर अछूतों के स्तर को ऊपर नहीं उठा सकते, वे जाति-आधारित समाज में निम्नतम स्तर के ही बने रहेंगे।49
राहुल और आंबेडकर दोनों ही मन्दिर के पक्ष में नहीं थे। दोनों ही दलितों की मुक्ति आ£थक विकास में मानते थे। राहुल की दृष्टि में आ£थक विकास के तीन उपाय थे। एक, उन्हें कृषि के लिये भूमि दी जाय। उनके अनुसार, अछूतों की जितनी जनसंख्या है, उसके हिसाब से उतनी जमीन की बचत नहीं है। इसलिये, उनका सुझाव था कि सरकार उन बड़े-बड़े जमींदारों की बकाश्त जमीन को लेकर अछूतों (खेतीहर-मजदूरों) को बांट दे, जिनकी जीविका खेती नहीं है।50
दूसरा उपाय, उनकी दृष्टि में गृहशिल्प था। राहुल ने लिखा है कि शहरों और कस्बों में अछूतों के लिये बस्तियाँ बसानी चाहिए और उन्हंे गृह-शिल्प के नये तरीके सिखाये जाने चाहिए, जिनमें बिजली की जरूरत न हो। वे लिखते हैं कि इन बस्तियों में रहने पर वे गांवों की संकीर्णता से मुक्त हो, जीवन को नये ढंग से शुरु कर सकते हैं। आगे राहुल यह भी जोड़ते हैं कि इन आदर्श बस्तियों में यदि कोई सवर्ण रहना चाहे तो उसे इस शर्त पर रहने की इजाजत दी जाय कि वह उनके साथ बराबरी का व्यवहार करेगा और उनके परिश्रम का गलत लाभ नहीं उठायेगा।51
तीसरा उपाय राहुल की दृष्टि में यह था कि सरकार भविष्य की औद्योगिक योजना में ‘‘हरिजनों को अधिक से अधिक आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करे।’’52
कृषि के मामले में हम आंबेडकर के विचार को देख चुके हैं कि वे सामूहिक फार्म बनाकर खेती की योजना चाहते थे। उनकी दृष्टि में जमीनें बांटना स्थायी हल नहीं था, क्योंकि जनसंख्या के हिसाब से जमीनों का विभाजन होता रहता है और छोटी जोतें लाभकारी नहीं रह जातीं। वे कृषि पर निर्भरता को कम से कम करना चाहते थे और तीव्र औद्योगीकरण के पक्ष में थे।
यहाँ तक नयी बस्तियों का प्रश्न है, आंबेडकर ने स्वयं उसका प्रस्ताव संविधान सभा को दिया था। यह प्रस्ताव उस ज्ञापन में मौजूद है, जिसे उन्होंने 1947 में अखिल भारतीय शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन की ओर से प्रस्तुत किया था। इसके अनुच्छेद-दो, अनुभाग-4 के खण्ड-2 में कहा गया है कि नये संविधान के अधीन एक बन्दोबस्त आयोग होगा, जो अलग-अलग गांवों में अनुसूचित जातियों के विस्थापन के लिये राज्य की जोत से भूमि की व्यवस्था करेगा।53 इसका खुलासा करते हुए वे कहते हैं कि इसका एक उद्देश्य अछूतों को हिन्दुओं की दासता से मुक्त करना है। उनके अनुसार, गांवों में रहते अछूतों को अछूतपन से छुटकारा नहीं मिल सकता, क्योंकि ‘‘गांवों के साथ लगी गन्दी बस्तियों की प्रणाली ही अस्पृश्यता को स्थायी बनाती है।’’ इसलिये उनकी मांग थी कि अछूतों को क्षेत्रीय और भोगौलिक रूप से अलग करके अलग गांवों में बसाया जाय, जो केवल अछूतों के गांव हों और जिनमें ऊँच-नीच का और छूत-अछूत का कोई भेद न हो।54
पृथक बस्तियों की मांग का दूसरा कारण, आंबेडकर ने यह माना था कि अछूतों की आ£थक स्थिति बहुत दयनीय है। वे भूमिहीन मजदूर किसान हैं, जो पूरी तरह हिन्दुओं पर निर्भर करते हैं। गांव में वे अन्य कोई काम नहीं कर सकते, क्योंकि अछूत होने के कारण कोई हिन्दू उनसे लेन-देन नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में, आंबेडकर कहते हैं कि ‘‘जब तक अछूत हिन्दू गांव के अधीन उसके भाग के रूप में गन्दी बस्तियों में रहते हैं, तब तक वे अपने लिये उपलब्ध रोजगारों से जीविका नहीं कमा सकते।’’55
ऐसी पृथक बस्तियों का निर्माण सरकार की ओर से जनजातियों के लिये किया भी गया है, जिन्हें हम ‘उन्नयन बस्तियों’ के रूप में जानते हैं। इन बस्तियों के काफी अच्छे परिणाम भी सामने आये हैं। नयी बस्तियों में रहकर उन लोगों ने पुश्तैनी धन्धे छोड़कर नये रोजगार अपनाये हैं, अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया और नागरीय संस्कृति में अपना विकास किया है। अभी भी ऐसी बहुत सी खानाबदोश जातियाँ हंै, जिन्हें विकास की मुख्य धारा में लाने के लिये ऐसी पृथक बस्तियों की बहुत ज्यादा जरूरत है।
अछूतों के लिये पृथक बस्तियों की मांग जिस समय राहुल और आंबेडकर कर रहे थे, उसके पीछे हिन्दू गांवों की सामन्ती व्यवस्था थी, जिसमें अछूतों के लिये स्वतन्त्रता, समानता और सम्मान के लिये कोई जगह नहीं थी। आंबेडकर ने भारतीय गांवों को, (जिन्हें हिन्दू रिपब्लिक कहते हैं) अछूतों पर आधारित हिन्दूओं का एक विशाल साम्राज्य और अछूतों का शोषण करने के लिये हिन्दुओं का उपनिवेश कहा था।56 ऐसी स्थिति में अछूतों के पुनर्वास के लिये पृथक बस्तियों की मांग गलत नहीं थी।
1942 में, स्वतन्त्रता आन्दोलन के चरम काल में और विश्वयुद्ध के समय में राहुल सांकृत्यायन की कहानियों का संग्रह ‘वोल्गा से गंगा’ प्रकाशित हुआ था। उसकी अन्तिम कहानी ‘सुमेर’ में न सिर्फ दलित समस्या पर, बल्कि स्वतन्त्र भारत में किस तरह की व्यवस्था कायम होनी चाहिए, इस विषय पर भी चर्चा हुई है। मुख्य पात्र सुमेर एक अछूत जाति से है और पटना कालेज का विद्यार्थी है। वह साम्यवादी विचारधारा को मानता है और जितना वह गांधी और गांधीवादी दर्शन का आलोचक है, उतना ही कटु आलोचक वह आंबेडकर का भी है। इस कहानी में सुमेर के रूप में राहुल स्वयं मौजूद हैं। सुमेर कहता है कि आंबेडकर के रास्ते और कांग्रेस अछूत नेताओं के रास्ते में कोई अन्तर नहीं है। उसकी समझ में आंबेडकर का रास्ता गांधी-बिड़ला-बजाज रास्ते से ही मिल जाता है।57
असल में आंबेडकर को लेकर राहुल जिस गलत धारणा के शिकार थे, उस समय के सभी कम्युनिस्ट नेता उसके शिकार थे। वे जाति के खिलाफ दलितों के संघर्ष को साम्राज्यवादी नीति का हिस्सा मानते थे। उन्होंने यह सोचने की कोशिश ही नहीं की कि जाति-व्यवस्था को खत्म किये बिना इस देश में कोई माई का लाल साम्यवादी क्रान्ति लाने में सफल नहीं हो सकता। राहुल स्वयं अपने विचारों में बहुत स्थानों पर ब्राह्मणवाद से ग्रस्त थे। उदाहरण के लिये उन्होंने अपनी जीवन-यात्रा में एक स्थान पर लिखा है कि प्रगतिशीलता का अर्थ पुरातन को छोड़ना नहीं है। इसी आधार पर वे सूर और तुलसी को अपनाने की बात करते हुए लिखते हैं, ‘‘प्रगतिशीलता का यह मतलब नहीं है कि सूर, तुलसी, कालीदास और वाण दकियानूसी विचार वाले समझें जायें। वह सामन्ती युग में पैदा हुए थे। उनकी कविता से सामन्त समाज की पुष्टि हुई थी, इसलिये उनकी कविताएँ गंगा में बहा देनी चाहिए। महान कवि चाहे किसी समाज और युग में पैदा हुए हों, वह हमेशा हमारे लिये महान रहेंगे।’’58
मैं समझता हूँ कि ब्राह्मण कितना ही प्रगतिशील क्यों न हो, वह ब्राह्मण के नाम पर आत्ममुग्धता का शिकार जरूर हो जाता है। राहुल में ब्राह्मण जाति का भले ही कोई संस्कार न रह गया हो, पर ब्राह्मण-मुग्धता उनमें जरूर बाकी थी। यही कारण है कि जिन ब्राह्मणवादी (और सामन्तवादी) कवियों को गंगा में बहा देना चाहिए था, वे उन्हें अपनाने की बात करते हैं। उनके लिये सामन्तवाद का पोषण ग़लत नहीं है, क्योंकि उसका पोषक ब्राह्मण है। यह राहुल की प्रगतिशीलता पर एक ऐसा धब्बा है, जिसे कोई डिटरजेंट साफ नहीं कर सकता।
‘सुमेर’ जिस समय की कहानी है, उस काल में आंबेडकर दलित वर्गों को ही नहीं, सारी सर्वहारा और मजदूर जनता को समाजवाद का पाठ पढ़ा रहे थे। वे उस समय की सभी समाजवादी ताकतों का आह्नान कर रहे थे कि वे ब्राह्मणों, पूंजीपतियों, जमींदारों और अन्य शोषक वर्गों के खिलाफ साझा मोरचा बनायें।59 वे मजदूरों की सरकार चाहते थे60 और मजदूरों को कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो पढ़ने की गुहार लगा रहे थे।61 राहुल सांकृत्यायन ने सम्भवतः आंबेडकर को रत्ती भर पढ़ने की कोशिश नहीं की थी, अन्यथा वे उन्हें पूंजीपतियों के रास्ते पर चलने वाला करने का अपराध न करते।
‘सुमेर’ में विश्वयुद्ध का वर्णन है। सुमेर अपने साथी से कहता है कि ‘‘इसी लड़ाई के साथ मजदूरिन के लड़के और उसकी सारी जमात का भविष्य बँधा हुआ है। इसलिये कि यह लड़ाई अब सिर्फ साम्राज्यों का ही फैसला नहीं करेगी, बल्कि शोषण का भी फैसला करेगी।’’62 सुमेर साम्राज्यवाद के खिलाफ और नयी व्यवस्था के हित में इस युद्ध में भाग लेता है और शत्रुओं के विमानों को टारपीडो से भेदता हुआ शहीद हो जाता है।
राहुल ने ‘वोल्गा से गंगा’ के ‘प्रथम संस्करण का प्राक्कथन’ सेन्ट्रल जेल, हजारी बाग में 23 जून 1942 को लिखा था। इसका मतलब है कि किताब जुलाई में छपी होगी। युद्ध उस समय चल रहा था, समाप्त नहीं हुआ था। जेल में राहुल जी को अखबार वगैरह नहीं मिल रहे होंगे और हो सकता है, बाहर की दुनिया से जुड़ने का कोई अन्य माध्यम भी उनके पास शायद न रहा हो- इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। फिर, क्या कारण है कि राहुल जी को यह नहीं मालूम हो सका कि आंबेडकर उस युद्ध को आम जनता का युद्ध (पीपुल्स वार) कह रहे थे और मजदूरों को इस युद्ध को क्यों जीतना चाहिए, इस पर जोर दे रहे थे।63 इस विषय पर उनके वक्तव्य बराबर अखबारों में छप रहे थे। सुमेर ने जो कहा है, उसमें आंबेडकर ही बोल रहे हैं। ठीक इन्हीं शब्दों में आंबेडकर ने अपनी रेडियो वार्ता में कहा था कि नाजीवाद भारतीयों की स्वतन्त्रता के लिये प्रत्यक्ष खतरा है। इसलिये भारतीयों को नाजीवाद से लड़ने के लिये इस युद्ध में भाग लेना चाहिए। यह युद्ध नयी व्यवस्था के लिये लड़ा जा रहा है। यह युद्ध केवल युद्ध नहीं, एक क्रान्ति है। अगर हम जीतते हैं, तो स्वाधीनता और नयी सामाजिक व्यवस्था इसके परिणाम होंगे।64
सुमेर भारत के विभाजन अर्थात् पाकिस्तान का समर्थन करता है। यह समर्थन लगभग उन्हीं शब्दों में है, जिन शब्दों में आंबेडकर ने अपने ग्रंथ ‘पाकिस्तान’ में किया है। अखण्ड भारत और उसकी सीमाओं को लेकर भी सुमेर के तर्क आंबेडकर के ही तर्क हैं।65 ऐसी स्थिति में राहुल ने सुमेर के द्वारा आंबेडकर को नकार कर वही ग़लती की है, जो यहां के अधिकांश वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी करते हैं। वे इस ख्याल में रहते हैं कि आंबेडकर को नकार कर या उन्हें साम्राज्यवाद का समर्थक प्रचार करके समाजवादी क्रान्ति कर लेंगे। यदि वे अपने ख्याल में दुरस्त होते, तो अब तक क्रान्ति हो चुकी होती। ऐसा लगता है कि वे आंबेडकर-विरोध के कारण आंबेडकर को समझना नहीं चाहते। आंबेडकर-विरोध का आधार ब्राह्मणवादी संस्कार ही हो सकता है। इसलिये वे यह भी जानना नहीं चाहते कि देश की दलित-पिछड़ी, सर्वहारा और मजदूर जनता में वामपंथी नेता क्यों अपनी पैठ नहीं बना पाते? क्या इसका कारण यह नहीं है कि वे उनके वर्ग से नहीं आते हैं? क्या राहुल सांकृत्यायन की कहानी ‘सुमेर’ इसी वर्ग चेतना की कहानी नहीं है, जो आंबेडकर को नकार कर चलती है?
मैं समझता हूँ कि यही सच है, क्योंकि 1944 में प्रकाशित राहुल की पुस्तक ‘‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’’ में भी मरकस बाबा (माक्र्स) के रास्ते का जिक्र तो है, पर यह जिक्र नहीं है कि मरकस बाबा जाति की दीवारों और अस्पृश्यता को कैसे ध्वस्त करेंगे?66 राहुल और आंबेडकर में यही एक बुनियादी फर्क है कि राहुल केवर्ल आिथक क्रान्ति की बात करते हैं, जबकि आंबेडकर का विचार है कि सामाजिक क्रान्ति के बिना कोई क्रान्ति नहीं हो सकती, न राजनैतिक और र्न आिथक।
सन्दर्भ
 1. मेरी जीवन यात्रा-(2), पृष्ठ 637
 2. नागपुर का भाषण, बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ, सातवाँ संस्करण 1969, पृष्ठ 4
 3. वही, पृष्ठ 5
 4. मेरी जीवन यात्रा-(2), पृष्ठ 153-154
 5. दिमागी गुलामी- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-2006, पृष्ठ 20
 6. वही, पृष्ठ 16-17
 7. वही, पृष्ठ 16
 8. वही, पृष्ठ 17-18
 9. वही, पृष्ठ 18-19
10. बाबा साहेब डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-1, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार की ओर से प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित, संस्करण अप्रेल 1993, पृष्ठ 89
11. वही, पृष्ठ 91
12. वही
13. वही
14. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 9
15. वही
16. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-1, पृष्ठ 92
17. वही, पृष्ठ 93
18. वही, पृष्ठ 99
19. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 5
20. डा. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम 10, एजूकेशन डिर्पामेंट, गवर्नमेंट आफ महाराष्ट्र, 1991, पृष्ठ 43
21. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 52-53
22. सोर्स मेटेरियल......वाल्यूम-1, पृष्ठ 165
23. वही, पृष्ठ 252-253
24. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 52
25. वही
26. वही, पृष्ठ 51
27. वही, पृष्ठ 53
28. वही, पृष्ठ 52
29. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-2, डा. आंबेडकर प्रतिष्ठान कल्याण मन्त्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, संस्करण दूसरा 1998, पृष्ठ 266
30. वही, पृष्ठ 267
31. वही, पृष्ठ 267-268
32. वही, पृष्ठ 264
33. वही, पृष्ठ 268
34. वही, पृष्ठ 271
35. वही, पृष्ठ 271-272
36. वही, पृष्ठ 273
37. वही, पृष्ठ 180
38. वही, पृष्ठ 181
39. वही
40. वही, पृष्ठ 193
41. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 46
42. वही, पृष्ठ 51
43. वही, पृष्ठ 47
44. वही
45. वही, पृष्ठ 46
46. वही, पृष्ठ 48
47. वही
48. सोर्स मेटेरियल आॅन......पृष्ठ 79
49. वही, पृष्ठ 106
50. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 49
51. वही, पृष्ठ 50
52. वही
53. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-2, पृष्ठ 187
54. वही, पृष्ठ 211-212
55. वही, पृष्ठ 212
56. वही, खण्ड-9, दूसरा संस्करण 1998, पृष्ठ 49
57. वोल्गा से गंगा, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 2005, पृष्ठ 329
58. मेरी जीवन यात्रा, खण्ड-2, पृष्ठ 692
59. सोर्स मेटेरियल......पृष्ठ 253
60. डा. आंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-10, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, बम्बई, संस्करण पहला 1991, पृष्ठ 43
61. वही, पृष्ठ 110
62. वोल्गा से गंगा, पृष्ठ 334-335
63. डा. आंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-10, पृष्ठ 36, देखिए आंबेडकर की रेडियो वार्ता- ‘व्हाई इंडियन लेबर इज डिटरमिन्ड टू विन द वार’
64. वही, पृष्ठ 36 से 43
65. कृप्या देखें- ‘पाकिस्तान और दि पार्टीशन आफ इंडिया’, इन ‘डा. आंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-8, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, संस्करण पहला 1990
66. भागो नहीं (दुनिया को) बदलो- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण  2004, देखिए- अध्याय-13, ‘अछूत और सोसित’, पृष्ठ 189-199

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