रविवार, 24 नवंबर 2013

                                                                  दूसरा अध्याय 
                                               राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर
                                                            (सन्दर्भ- आर्य सिद्धान्त)


दलित नव जागरण के समय में जो दलितों को रटया गया था, वह था यह इतिहासबोध कि हमलावर आर्यों ने भारत में आकर यहां के मूल निवासियों पर धावा बोला और उन्हें हरा कर अपने अधीन कर दास बना लिया, वही दास आज के शूद्र और अछूत हैं। दलितों में, उस समय सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले राहुल सांकृत्यायन की किताबों- ‘ऋग्वेदिक आर्य’ और खासकर ‘बोल्गा से गंगा’ की कहानियों ने इस धारणा को और भी मजबूत किया। महाराष्ट्र में दलित आन्दोलन के प्रर्वत्तक महात्मा ज्योतिराव फुले 19वीं शताब्दी में ही इस धारणा को अपनी पुस्तक ‘गुलामगीरी’ में स्थापित कर चुके थे। इसलिये समूचे दलित आन्दोलन ने इसी धारणा को अपना ऐतिहासिक आधार बनाया। इस धारणा को डा. आंबेडकर की पुस्तक ‘शूद्र कौन’ भी खंडित नहीं कर सकी, जो दलित नवजागरण के दौरान ही चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु के प्रकाशन संस्थान (बहुजन कल्याण प्रकाशन) से 1946 में ही छप कर आ चुकी थी। उसका दूसरा संस्करण 1968 में प्रकाशित हुआ था, जिसकी प्रति इन पंक्तियों के लेखक के पास सुरक्षित है।1 चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु की 1937 में प्रकाशित पुस्तक ‘‘भारत के आदि निवासियों की सभ्यता’’ के भी 1969 तक छह संस्करण प्रकाशित हो चुके थे और बोधानन्द महास्थिविर का ग्रन्थ ‘‘मूल भारतवासी और आर्य’’ (1930) अनुपलब्ध होने के बावजूद चर्चा में था। इन ग्रन्थों ने दलित वर्गों के मानस पर यह छाप छोड़ने में अमिट प्रभाव डाला था कि भारत के करोड़ों शूद्र और अछूत भारत के उन मूल निवासियों की सन्तान हैं, जो कि प्रागैतिहासिक काल में इस देश में स्वच्छन्दता से निवास करते थे और इस भूमि के स्वामी थे।
इस विषय पर राहुल सांकृत्यायन का क्या मत था, इसे हम उनकी 1956 में प्रकाशित पुस्तक ‘ऋग्वेदिक आर्य’ में देखने की कोशिश करते हैं। उनके अनुसार, यह मानना ही होगा कि आर्य बाहर से आये। क्यों? उनका उत्तर है- ‘‘आर्य भारत में बाहर से आये, यदि यह न माना जाय, तो आर्यों की भाषा पश्चिम की जिन भाषा वालों से अपना एक पारिवारिक सम्बन्ध बतलाती है, उन्हें भी भारत से गया मानना होगा। इसके कारण और अनेक समस्याएँ उठ खड़ी होगीं, जिनका समाधान अति कठिन है।’’2 स्पष्ट है कि उनके अनुसार यह भाषा की समस्या है, जिसके कारण आर्य भारतीय नहीं हैं। आर्य भारत में कब आये? वे लिखते हैं, ‘‘आर्यों के प्रवेश के समय पर ध्यान देने से आर्यों का भारत में प्रवेश ई.पू. 1500 से पहले नहीं मालूम होता।’’3 आर्य कहां से भारत में आये? उत्तर है, ‘‘भारतीय आर्य हिन्दी-यूरोपीय वंश की पूर्वी या शतम्-शाखा के अन्तर्गत आते हैं, जिसमें ही रूसी आदि स्लाब और ईरानी भी सम्मिलित हैं। ईरानी आर्य अपने मूल स्थान ‘आर्याना बेइजा’ का स्मरण रखते थे, पर भारतीय आर्य उसे भूल गये थे, यह ऋग्वेद के मौन-धारण से मालूम होता है। इसमें यह भी कारण हो सकता है कि उनका प्रसार बीच के स्थानों को छोड़कर नहीं हुआ,, इसलिये उन्हें मूल स्थान से निर्वासित होने का ख्याल नहीं हो सकता था। आखिर ऋग्वेदिक आर्यों के सबसे पश्चिम में रहने वाले पख्त, भलान आदि जन भारत के पश्चिमी द्वार खैबर और बोलन के काफी पीछे तक बसे हुए थे। उनके भी पश्चिम आर्य जन रहे होंगे, पर प्रकरण में न आ सकने के कारण ऋग्वेद ऋषि उनका नाम-स्मरण नहीं कर सके।’’4 लगता है, राहुल जी ने अटकल लगायी है और सब बातों को छोड़कर केवल भाषा को आधार बनाया है।
आर्यों का संघर्ष भारत के मूल निवासियों से हुआ। यह भी राहुल ने स्पष्ट किया है, ‘‘आर्यों का सप्त सिन्धु में छा जाना शान्तिपूर्वक नहीं हुआ। अपने से अधिक सभ्य तथा नागरिक होने से अपेक्षाकृत मृदुल-प्रकृति वाले प्रतिद्वन्द्वियों से उनका खूनी संघर्ष 1500 ई.पू. के आस-पास हुआ था।’’5 वे आगे लिखते हैं, ‘‘मोहन-जोदड़ो, हड़प्पा तथा ऐसे ही कितने और नगरों के संहार के बाद सप्त सिन्धु की विजित भूमि को पशुपाल आर्य जनों ने आपस में बाँट कर उसे गोचर भूमि में परिणत कर दिया। बहुत से नगर वीरान हो गये। गांवों के भी बहुत से लोग पूर्व और दक्षिण की ओर भाग गये। जो रह गये, उन्हें विजेताओं ने दास या कमकर बना लिया।’’6
आर्यों का संघर्ष भारत की किन जातियों से हुआ? राहुल जी लिखते हैं, ‘‘ऋग्वेदिक आर्यों के काल (ई.पू. 1200-1000) में भारत में चार जातियाँ मुख्यतः बसती थीं, जिनमें कोल या कोलारी (निषाद, आस्ट्रिक) सप्त सिन्धु से बहुत दूर रहते थे, इसलिये उनसे उस समय आर्यों का कोई सम्बन्ध नहीं था। आर्यों के घनिष्ठ सम्पर्क और संघर्ष में आने वाले (1) मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्य जाति ‘द्रविड़’ और (2) कश्मीर से आसाम और आगे के पहाड़ों तथा तराई में बसने वाली जाति ‘किरया किरात’ (मोन्-ख्मेर) मुख्य थीं। आते ही आर्यों को नागरिक द्रविड़ों से पहले भुगतना पड़ा। फिर सप्त सिन्धु में छा जाने के बाद जब वह हिमालय की तराई और उसके भीतर घुसने लगे, तो उनका संघर्ष किरों से हुआ। द्रविड़ और किरात दोनों में ऋग्वेद ने कोई भेद नहीं किया और दोनों ही को कृष्णचर्म, कृष्णयोनि या कृष्णवर्ण (काले रंग वाला) कहा है।’’7
इस युद्ध में जो स्त्री-पुरुष पराजित हुए, राहुल के मतानुसार, उनमें से ‘‘बहुतों को विजेता दास-दासी बनाकर काम लेते थे।’’8 वे आगे लिखते हैं, ‘‘शूद्र से दास वर्ण का मतलब है, जो कि पहले आर्यों के प्रतिद्वन्द्वी और पीछे उनके शासित या दास बन गये।’’9 उनके अनुसार, ‘‘उस वक्त जो भी युद्धबन्दी हाथ आये होंगे, वह दास-दासी बन गये होंगे, इसमें सन्देह नहीं।’’10 इन दास-दासी शूद्रों के साथ किस तरह का व्यवहार आर्यों ने किया, इसका उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘आ£थक तौर से पराजितों का भीषण शोषण तो होता ही था, सामाजिक तौर से भी उन्हें बहुत हीन समझा जाता था। गुत्समद ने मान लिया था कि देवताओं ने ही उन्हें अधम (नीच) वर्ण का बना दिया है।’’11
जैसा कि कहा जा चुका है, पराजित लोग कृष्ण (काले) वर्ण (रंग) के थे और स्पष्ट है कि आर्य श्वेत (गोर) थे। अतः शूद्र काले रंग के थे, जिसके कारण उनके साथ भेदभाव किया गया। राहुल के अनुसार, ‘‘आर्यों को रक्त-सम्मिश्रण का डर कितना था, इसका अन्दाज हमें अमेरिका के नीग्र्रो और श्वेतांगों से लग सकता है। आर्यों ने वर्ण भेद की खाई को सुदृढ़ रखने की कोशिश की। यद्यपि वर्ण-रंग का इस तरह का भेदभाव हमारी जातियों में आज बिल्कुल नहीं मिलता। ब्राह्मण भी कोयले से काले मिलते हैं, और शूद्र या अछूत अच्छे खासे गोरे।’’12
आगे राहुल जी ने एक बड़े मजे का तर्क इस मामले में दिया है कि यवन, शक और हूण अछूत क्यों नहीं बने, जबकि वे भी बाहर से हमलावर के रूप में आये थे? राहुल लिखते हैं, ‘‘उनके प्रति आरम्भ में कुछ भेदभाव जरूर रक्खा गया, लेकिन रंग का सवाल नहीं उठ सकता था, क्योंकि नवान्तुक वर्ण-सम्पत्ति में आदिम आर्यों जैसे थे, जिनके रूप, रंग, नख-शिख को हमारे यहाँ बराबर सौन्दर्य की कसौटी माना जाता रहा। इसीलिये यवन-शक उच्च वर्ण के लोगों में मिल गये और उन्हें अछूत या सम्पत्तिहीन नहीं बनना पड़ा।’’13
सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता की स्थिति पर राहुल जी की टिप्पणी बेहद रोचक है। वे लिखते हैं, ‘‘तीव्र वर्ण-भेद के ख्याल से आर्य अपने दास-दासियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने के विरोधी थे। पर, दास-दासियों के श्रम का वह कैसे त्याज्य कर सकते थे? दक्षिणी अफ्रीका के गोरे भी कालों के श्रम से लाभ उठाने से बाज नहीं आते। सिन्धु-उपत्यकावासी भौतिक संस्कृति में आर्यों से बहुत आगे बढ़े हुए थे। मोहनजोदड़ो जैसे ताम्र युग के भव्य नगर के निर्माण करने वाले उनके शिल्पी, अपने कला-कौशल तथा शिल्प से आर्यों के लिये लाभदायक थे। इस लाभ से वह अपने को वंचित नहीं करना चाहते थे। कपड़ा बुनना, चिकित्सा करना, हथियार बनाना आदि कुछ शिल्प आर्यों को भारत में आने से पहले ही मालूम थे। उन्होंने सिन्धु-उपत्यकावासियों के अधिक विकसित शिल्प भी कुछ सीखे। उससे भी अधिक उन्हीं द्वारा काम करवाकर लाभ उठाया, पर खान-पान की जो छूतछात पीछे पैदा हुई, उसका अस्तित्व उस काल में था, यह कहना मुश्किल है। जहाँ तक उत्तर भारत का सम्बन्ध है, ‘शूद्राः संस्कर्तारः’ (शूद्र पाचक हैं) बराबर माना जाता रहा। रोटी-पानी में शूद्रों से नहीं, बल्कि अतिशूद्रों से भेद बरता जाता रहा, जिसका कारण वर्ण नहीं, बल्कि अधिक गन्दे समझे जाने वाले काम थे।’’14
जो सिन्धु-उपत्यकावासी (मूल निवासी) शिल्प और कला-कौशल में आर्यों से बढ़-चढ़कर थे, वे असभ्य और अकुशल आर्यों से पराजित होकर दास कैसे हो गये, इस प्रश्न पर राहुल जी ने कोई विचार नहीं किया। देखते हैं कि इस विषय पर डा. आंबेडकर के विचार क्या हैं?

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आंबेडकर का मत है कि ब्राह्मण शास्त्रकारों से यह पता नहीं चलता कि शूद्र कौन थे और चैथा वर्ण कैसे बना? उनके अनुसार यह भ्रम पाश्चात्य विद्वानों ने फैलाया है कि आर्य बाहर से आये और उन्होंने यहां के मूल लोगों को पराजित कर शूद्र बनाया। वे इस मत का जबरदस्त खण्डन करते हैं। उनका कहना है कि आर्य एक भाषा है। आर्य शब्द का सम्बन्ध न रक्त से है, न शारीरिक ढाँचे से, न बालों से और न कपाल से है। जो आर्य भाषा बोलते हैं, वे ही आर्य हैं।15
वे ऋग्वेद के हवाले से लिखते हैं कि ‘अर्य’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में 88 बार हुआ है। इसका प्रयोग चार विभिन्न अर्थों में किया गया है, जो ये हैं- (1) शत्रु, (2) संभ्रान्त नागरिक, (3) भारत देश का नाम, और (4) स्वामी, वैश्य अथवा नागरिक। इसी तरह ‘आर्य’ शब्द 31 बार आया है, जिसका अर्थ कहीं भी जाति नहीं है।16 वे परिशिष्ट में इन दोनों शब्दों की सम्पूर्ण सूची भी प्रस्तुत करते हैं।18
क्या आर्य बाहर से आये? वे भारत में कहाँ से आये? अर्थात् उनका मूल स्थान कहाँ था? इस सम्बन्ध में विद्वानों ने बहुत तरह के विचार व्यक्त किये हैं। आंबेडकर कहते हैं कि वे सभी विचार भ्रामक हैं। तिलक के अनुसार आर्य आर्कटिक क्षेत्र के रहने वाले थे। पर, आंबेडकर ने यह कहकर इस मत को खारिज कर दिया कि आर्कटिक क्षेत्र में घोड़ा विद्यमान नहीं था, जो आर्यों का प्रिय प्राणी था।19
आंबेडकर लिखते हैं कि वैदिक साहित्य से पता नहीं चलता कि आर्य बाहर से आये। उन्होंने ऋग्वेद के मन्त्र 75 का उल्लेख किया है, जिसमें सात नदियों का प्रसंग महत्वपूर्ण है। वहां नदियों का सम्बोधन ‘मेरी गंगा’, ‘मेरी जमुना’ और ‘मेरी सरस्वती’ कहकर किया गया है। आंबेडकर सवाल करते हैं कि कोई भी विदेशी ऐसा सम्बोधन क्यांे करेगा? उनके अनुसार, ऐसा सम्बोधन वही कर सकता है, जिसका इनसे निकट का भावात्मक सम्बन्ध हो।20
आंबेडकर आगे कहते हैं कि वेदों में दासों, दस्युओं और आर्यों के  बीच किसी बड़े युद्ध का वर्णन नहीं मिलता, केवल छोटी-छोटी झड़पों का उल्लेख मिलता है। यह जय-पराजय का प्रमाण नहीं हो सकता। उनके अनुसार, ऋग्वेद के मन्त्रों (6-33-3, 7-83-1, 5-51-9 तथा 10-102-3) में स्पष्ट कहा गया है कि आर्यों के साथ दास और दस्युओं ने मिलकर संयुक्त रूप से शत्रु से युद्ध किया। वे कहते हैं कि संघर्ष की स्थिति के बावजूद दासों, दस्युओं और आर्यों में शान्ति बनाये रखने के लिये सम्मान जनक समझौते भी हुए हैं। वे आगे लिखते हैं कि ऋग्वेद के अनुसार, यदि संघर्ष था भी, तो वह जाति के आधार पर नहीं, धर्म के आधार पर था। ऋग्वेद के मन्त्र (10-22-8) में कहा गया है कि हम दस्यु जातियों के बीच रहते हैं। ये लोग न तो यज्ञ करते हैं और न किसी की पूजा। उनके संस्कार-अनुष्ठान भी भिन्न हैं। अतः वे मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं। हे शत्रु-हंता! इन दस्युओं का नाश करो।21 अतः आंबेडकर कहते हैं कि ऋग्वेद के आधार पर इस मत का खण्डन हो जाता है कि आर्य बाहर से आये और उन्होंने यहां के मूल निवासियों को जीता।22
आगे आंबेडकर ने इस प्रश्न पर विचार किया है कि क्या दास या दस्यु नाम की कोई जाति थी? जो लोग आर्यों का दासों और दस्युओं से संघर्ष मानते हैं, उनका मत है कि ऋग्वेद में ‘मृध्रावक’ और ‘अनास’ दस्युओं के गुण बताये गये हैं और ‘दास’ को कृष्ण-वर्ण कहा गया है। आंबेडकर कहते हैं कि ऋग्वेद में ‘मृध्रावक’ शब्द चार मन्त्रांे (1-14-2, 5-32-8, 7-6-3, तथा 7-18-3) में आया है, जिसका अर्थ है, वह व्यक्ति जो गंवार है और अपरिष्कृत भाषा बोलता है। वे पूछते हैं कि क्या भाषा का गंवारूपन या अपरिष्कृत होना जाति-भिन्नता का साक्ष्य माना जा सकता है? वे आगे कहते हैं कि ‘अनास’ शब्द ऋग्वेद के मन्त्र (5-29-10) में आया है। सायण ने इसका अर्थ बिना मुंह वाला अर्थात् कटुभाषी किया है, जबकि मैक्समूलर ने इसे बिना नासिका वाला बताया है। इनमें सही अर्थ कौन सा है? आंबेडकर कहते हैं कि दरअसल ये दो अर्थ दो तरह से पढ़ने के कारण हैं। सायण ने इस शब्द को ‘अन-असा’ पढ़ा है, जबकि मैक्समूलर ने ‘अन्नासा’। वे कहते हैं कि सायण का अर्थ सही है, क्योंकि दस्युओं को कहीं भी बिना मुंह या बिना नाक वाला नहीं बताया गया है। उनके अनुसार यह ‘मृध्रावक’ का ही पर्याय है। इससे यह तो साबित होता है कि दस्यु कटुभाषी थे, पर उनका एक भिन्न जाति होना साबित नहीं होता।23
क्या दास कृष्ण वर्ण के थे? आंबेडकर लिखते हैं कि ऋग्वेद (मन्त्र 6-47-21) में दासों को कृष्ण योनि का बतलाया गया है। पर, यह स्पष्ट नहीं होता कि यह शब्द लाक्षणिक रूप में प्रयोग हुआ है या शाब्दिक अर्थ में? यह भी पता नहीं चलता कि यह यथार्थ है या घृणा का प्रतीक। जब तक इन प्रश्नों का उत्तर न मिल जाय, तब तक, वे कहते हैं, यह मत स्वीकार करना सम्भव नहीं कि दासों को काले रंग की जाति का माना जाय।24 इन प्रश्नों के समाधान के लिये वे ऋग्वेद के तीन मन्त्रों का उल्लेख करते हैं, जो इस प्रकार हैं-
1. ऋग्वेद (6-22-10)- ‘‘हे वज्रि, तूने दासों को आर्य बनाया है,  अपनी शक्ति से बुरे को अच्छा बनाया है। हमें भी वही शक्ति दो,  जिनसे हम शत्रुओं पर विजय पा सकें।’’
2. ऋग्वेद (10-49-3)- ‘‘इन्द्र कहता है, मैंने दस्युओं को आर्य  सम्बोधन से वंचित कर दिया है।’’
3. ऋग्वेद (1-15-108)- ‘‘हे इन्द्र, यह मालूम करो कि आर्य कौन हैं  और दस्यु कौन हैं? इन दोनों को पृथक करो।’’
आंबेडकर कहते हैं कि इन मन्त्रों से यह स्थापित होता है कि आर्यों और दासों तथा दस्युओं के बीच न जातीय भिन्नता थी और न शारीरिक। दास और दस्यु आर्य कहे जाते थे, इसीलिये इन्द्र से कहा गया कि उन्हंे आर्यों से पृथक किया जाय।25
आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘आर्य जाति का सिद्धान्त अनुमान के सिवा कुछ नहीं है। यह डा. बोप के दार्शनिक विचारों पर आधारित है, जो उन्होंने 1835 ई. में प्रकाशित अपनी युगान्तरकारी पुस्तक ‘कम्पैरेटिव ग्रामर’ में प्रकट किये हैं। इस पुस्तक में डा. बोप ने लिखा है कि यूरोप की अधिकांश और एशिया की कुछ भाषाओं के पूर्वज एक ही थे। जिन भाषाओं की ओर डा. बोप ने संकेत किया है, वे भारत-जर्मन भाषाएँ कहलाती हैं। इन्हें समुच्चय रूप से आर्य भाषा कहा गया है, क्योंकि वैदिक भाषा आर्यों का उल्लेख करती है और वह भारत-जर्मन भाषा परिवार से सम्बद्ध है। यही मुख्य सिद्धान्त आर्य जाति पर लागू है।’’26
वे आगे कहते हैं कि इससे लोगों ने दो अनुमान लगाये- (1) जातियों की एकता और (2) यह प्रजाति आर्य जाति है। इन लोगों ने यह तर्क दिया कि यदि भाषाओं का उद्गम समान आनुवंशिक बोलियाँ हैं, तो ऐसी जाति रही होगी, जिसकी वह मातृभाषा रही हो और वह आर्य जाति की आर्य भाषा रही होगी। वे कहते हैं कि इसी एक अनुमान से समान मूल स्थान का अनुमान भी गढ़ा गया।27 लेकिन, सबसे नया अनुमान और अनुसन्धान आर्यों के आक्रमण का सिद्धान्त है, जिसको खोजने की जरूरत, डा. आंबेडकर के अनुसार, पश्चिमी विद्वानों को इस कथन को सिद्ध करने के लिये पड़ी कि ‘इंडो-जर्मन’ ही मूल आर्यों के मूल प्रतिनिधि हैं। इनका मूल स्थान यूरोप बताया गया है। आंबेडकर कहते हैं कि केवल यह बताने के लिये कि आर्य भाषा भारत कैसे पहुँची, भारत में आर्यों के आगमन और आक्रमण के सिद्धान्त को गढ़ा गया।28
आंबेडकर के अनुसार पश्चिमी विद्वानों ने तीसरी कल्पना यह की कि आर्य एक श्रेष्ठ जाति है। इस मत का आधार यह विश्वास है कि आर्य यूरोपीय जाति के थे और इस नाते वे एशियाई जातियों से श्रेष्ठ हंै। श्रेष्ठता की इस परिकल्पना को यथार्थ सिद्ध करने के लिये ही इस कहानी को गढ़ने की आवश्यकता पड़ी, क्योंकि उन्हें पता था कि आक्रमण की बात कहने के सिवा आर्य जाति को श्रेष्ठ बताने का और तरीका नहीं है।29
आंबेडकर आगे कहते हैं कि योरोपीय विद्वानों ने यह तर्क भी गढ़ा कि योरोपीय जातियाँ गौर वर्ण होती हैं। चूंकि आर्य योरोपीय थे, इसलिये वे गोरे भी थे। वे एशियाई जातियों से इसलिये घृणा करते हैं, क्योंकि वे काले रंग की होती हैं। चूंकि ये योरोपीय विद्वान रंगभेदी थे, इसलिये उनके अनुसार वर्णव्यवस्था रंगभेद का पर्याय थी।30 आंबेडकर ने इन सारी परिकल्पनाओं को निराधार और हास्यास्पद अटकलों पर आधारित बताया है। वे कहते हैं कि यदि वर्णव्यवस्था रंगभेद का पर्याय होती, तो जातीय भेदभाव का आधार रंग होता, न कि जाति और चारों वर्णों के चार ही रंग होने चाहिए थे।31
आंबेडकर के मतानुसार आर्य जाति की उत्पत्ति का सिद्धान्त एक पुरानी भ्रान्ति है, जिसका अन्त बहुत पहले हो जाना चाहिए था, पर ब्राह्मणों ने इसका समर्थन करके इसे जन साधारण में प्रचलित कर दिया। वे कहते हैं कि ब्राह्मणों ने दो कारणों से इसका समर्थन किया। पहला इसलिये कि ब्राह्मण दो राष्ट्र के सिद्धान्त में विश्वास रखता है। वह स्वयं को आर्यों का प्रतिनिधि मानता है और शेष हिन्दुओं को अनार्य जातियों की सन्तान कहने से उसके श्रेष्ठ होने के अहम की पू£त होती है। वह आर्यों के बाहर से आने तथा अनार्य जातियों को विजित करने के सिद्धान्त का समर्थन अब्राह्मणों पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने के मकसद से करता है। दूसरा कारण यह है कि योरोपीय विद्वानों के वर्ण का अर्थ रंग को ब्राह्मणों ने आर्य सिद्धान्त को जीवित रखने के लिये माना, क्योंकि वर्णभेद ही आर्य सिद्धान्त का मूलाधार है।32
क्या आर्य वस्तव में गौर वर्ण के थे और वर्णभेद के समर्थक थे? आंबेडकर ने ऋग्वेद के हवाले से इसका खण्डन किया है। वे लिखते हैं कि ऋग्वेद के मन्त्र (1-117-8) में प्रसंग है कि आश्विन ने श्यामा और रूसति से विवाह किया। श्यामा काली थी और रूसति गोरी। एक अन्य मन्त्र (1-117-5) में आश्विन ही स्तुति कुन्दनवर्णा वन्दना के उद्धार के लिये की गयी है। किन्तु ऋग्वेद के ही अन्य मन्त्र (9-3-9) में एक आर्य ने पिशांक रक्ताभ ताम्रवर्ण वाले गुणी पुत्र के लिये देवताओं की आराधना की है। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों के सृष्टा ऋषि दीर्घत्तमा थे, जो श्यामवर्ण के थे। मन्त्र 10-31-11 के अनुसार, आर्य ऋषि कण्व भी श्याम वर्ण के थे। आंबेडकर लिखते हैं कि इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि आर्य न तो गोरे वर्ण के थे और न वर्णभेद के समर्थक थे।33
आंबेडकर ऋग्वेद और अन्य शास्त्रांे के अध्ययन के हवाले से स्पष्ट करते हैं कि आर्यों की दो जनजातियाँ थीं, न कि एक। योरोपीय विद्वान जिस एक आर्य प्रजाति की बात करते हैं, ऋग्वेद में उसका प्रमाण नहीं मिलता। ऋग्वेद में दो भिन्न आर्य जातियों का वर्णन है।34 वे आगे कहते हैं कि दास, दस्यु और आर्य तीनों आर्य जाति के हैं और तीनों भारतीय हैं।35
आंबेडकर की यह स्थापना है कि शूद्र आर्य थे और वे क्षत्रिय थे। वे क्षत्रियों में इतने उत्तम और महत्वपूर्ण वर्ण के थे कि प्रचीन आर्यों के समुदाय में अनेक शूद्र तेजस्वी और बलशाली राजा थे। उन्होंने मैक्समूलर के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए विस्तार से लिखा है कि ऋग्वेद में पुरुष सूक्त एक क्षेपक है, जो चार वर्ण की बात करता है। उनके अनुसार वर्ण तीन थे और शूद्र दूसरे वर्ण क्षत्रिय से सम्बन्धित थे।36 चैथा वर्ण कब बना और शूद्र उसमें कब ढकेले गये? इस पर आंबेडकर का मत है कि क्षत्रिय और ब्राह्मणों के संघर्ष के कारण चैथा वर्ण शूद्र बना। ब्राह्मणों ने उनका उपनयन बन्द कर उन्हें शूद्र बनाया। ब्राह्मणों की यह प्रतिक्रिया शूद्र राजाओं के द्वारा उनके साथ किये गये अत्याचार, उत्पीड़न और अपमान के कारण थी, जिसका आशय था प्रतिशोध की भावना।37
प्रश्न उठता है कि शूद्रों ने इस अधोपतन को कैसे सहन किया? इसका उत्तर आंबेडकर यह देते हैं कि उनकी संख्या कम थी और वे ब्राह्मणों द्वारा अपने विरुद्ध गठित संयुक्त मोर्चे का विरोध करने में असमर्थ थे।38
अपने निष्कर्ष में आंबेडकर ने एक बात बड़ी महत्वपूर्ण यह कही है क आर्य शूद्र और आज के हिन्दू शूद्र एक नहीं हैं। धर्म सूत्रकारों ने सच्छूद्र (सभ्य शूद्र) और असच्छूद्र (असभ्य शूद्र) के रूप में शूद्र में अन्तर किया है। उनके अनुसार सभ्य शूद्र निर्वासित शूद्र थे, जो गांव के भीतर रहते थे और असभ्य शूद्र अनिर्वासित शूद्र थे, जो गांव से बाहर रहते थे। आर्य शूद्र एक जाति (वंश या कुल) का नाम था, जबकि हिन्दू समाज में ‘शूद्र’ शब्द तथाकथित नीच अथवा असभ्य मानव वर्ग के लिये प्रयुक्त गुणवाचक संज्ञा है।39

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इस प्रकार हम देखते हैं कि आर्य जाति के सिद्धान्त को लेकर राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर के विचार परस्पर विरोधी हैं। यहां राहुल योरोपीय विद्वानों का समर्थन करते हुए आर्यों को योरोपीय वंश का मानते हैं, वहीं आंबेडकर आर्यों को भारतीय जनजाति का मानते हुए योरोपीय सिद्धान्त को सिरे से खारिज कर देते हैं। राहुल आर्य शूद्र और हिन्दू शूद्र को रेखांकित नहीं कर पाते हैं। वे दोनों को एक ही मानते हैं। पर, आंबेडकर की दृष्टि में आर्य शूद्र और हिन्दू शूद्र अलग-अलग हैं। राहुल ने दास-दस्युओं को अनार्य और आर्यों का दास माना है, जबकि आंबेडकर का अध्ययन इसके विरुद्ध है। उनके अनुसार दास-दस्यु दो जातियाँ हैं और वे आर्य हैं। राहुल इस सिद्धान्त को मानते हैं कि आर्यों ने मूल निवासियों को पराजित कर दास बनाया, जबकि आंबेडकर इसे एक हास्यास्पद अटकल बाजी मानते हैं। राहुल का मत है कि आर्य गोरे थे, पर आंबेडकर कहते हैं कि आर्य श्यामवर्ण के भी थे, जो ऋग्वेद से ही प्रमाणित होता है। आंबेडकर का यह भी विचार है कि ब्राह्मणों ने योरोपीय विद्वानों के सिद्धान्त को अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के उद्देश्य से अपनाया है, ताकि वे अब्राह्मणों और शूद्र-अतिशूद्रों को हेय दृष्टि से देखते रहें।
सन्दर्भ

1. शूद्रों की खोज, डा. आंबेडकर, हिन्दी अनुवादः एक दलित भारतीय आत्मा, प्रकाशकः बहुजन कल्याण प्रकाशन, 360/193 मातादीन रोड, लखनऊ-3, संस्करण दूसरा 1968 (यह पुस्तक  इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि आंबेडकर ने स्वयं इस अनुवाद को देखा था, जो कि मूल पुस्तक का संक्षिप्त अनुवाद है और इसका प्राक्कथन भी अलग से लिखा था।)
 2. ऋग्वेदिक आर्य, किताब महल, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 2004, पृष्ठ 1
 3. वही
 4. वही, पृष्ठ 1 व 2
 5. वही, पृष्ठ 6
 6. वही, पृष्ठ 9
 7. वही, पृष्ठ 14
 8. वही, पृष्ठ 16
 9. वही, पृष्ठ 18
10.   वही, पृष्ठ 19
11.   वही
12. वही
13.   वही
14.   वही, पृष्ठ 20
15. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-13, डा. आंबेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, संस्करण जून 1998, पृष्ठ 46
16. वही, पृष्ठ 46
17.   वही, पृष्ठ 47
18.   वही, पृष्ठ 171
19.   वही, पृष्ठ 51
20.   वही, पृष्ठ 52
21.   वही, पृष्ठ 52-53
22.   वही, पृष्ठ 53
23.   वही, पृष्ठ 53-54
24.   वही, पृष्ठ 54
25.   वही
26.   वही, पृष्ठ 55
27.   वही
28.   वही
29.   वही
30.   वही, पृष्ठ 55-56
31.   वही, पृष्ठ 56
32.   वही, पृष्ठ 56-57
33.   वही, पृष्ठ 57-58
34.   वही, पृष्ठ 76
35.   वही, देखिए अध्याय 6, शूद्र और दास
36.   वही, पृष्ठ 112
37.   वही, देखिए अध्याय 10 और 11
38.   वही, पृष्ठ 164


39.   वही, पृष्ठ 163

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