रविवार, 24 नवंबर 2013

राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर - तीन अध्ययन 
लेखक - कँवल भारती
प्रथम संस्करण - जनवरी 2007
प्रकाशक - साहित्य उपक्रम

                                                                  पहला अध्याय 


                                                     राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर
                                                                    (सन्दर्भ- बौद्धधर्म)


भारत में आधुनिक बौद्धधर्म तीन महान व्यक्तियों का ऋणी है। यानी, जिस बौद्धधर्म को ब्राह्मणवाद ने भारत की धरती से खदेड़ दिया था, उन्नीसवीं शताब्दी में उसका पुनरुद्धार तीन महान लोगों ने किया। ये महान लोग थे- अनागरिक धर्मपाल, महापंडित राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर। धर्मपाल श्री लंका के थे। वे 1891 में भारत आये थे और यहां सारनाथ और बोधगया की दुर्दशा देख कर उनके उद्धार के लिये यहीं रुक गये थे। उन दिनों बौद्धों के तीर्थ स्थल ब्राह्मण महन्तों के कब्जे में थे। लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ कर उन्होंने कई बौद्ध मन्दिरों को ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराये और बौद्धों को सौंपे थे। सारनाथ में उन्हीं के नेतृत्व में खुदाई कार्य किया गया था और उसी खुदाई के परिणाम स्वरूप आज के धम्मेख स्तूप का अस्तित्व सामने आया था। बोध गया का मन्दिर बौद्धों को सौंपे जाने की लड़ाई भी उन्होंने ही लड़ी थी, जो अभी तक जारी है। यही धर्मपाल जी 1893 में शिकागो में होने वाली विश्वधर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर गये थे। धर्मपाल जी दर्शन और इतिहास के लेखक नहीं थे, पर भारत में प्राचीन बौद्ध स्थलों को खोजने और उनका पुनरुद्धार करने का एक मात्र श्रेय उन्हीं को जाता है।1
आधुनिक भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार पर जब भी चर्चा चलती है, तो धर्मपाल जी का नाम राहुल और आंबेडकर से पहले आता है। धर्मपाल जी ने यदि बौद्ध स्तूपों, विहारों और मन्दिरों का उद्धार और निर्माण कराया, तो राहुल सांकृत्यायन को लुप्त बौद्ध साहित्य की खोज करने का श्रेय जाता है। उन्होंने तिब्बत की यात्रा की और वहां से 18 खच्चरों पर लाद कर बौद्ध साहित्य भारत लाये, जो पटना के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है। यह साहित्य तिब्बती भाषा में है, जिसका उन्होंने संस्कृत और फिर हिन्दी में अनुवाद किया। आज हिन्दी में अधिकांश त्रिपिटक राहुल जी की ही देन है। यदि राहुल जी ने यह महत्वपूर्ण कार्य न किया होता, तो भारत में हिन्दी में बौद्ध साहित्य का सचमुच अभाव होता।
लेकिन बौद्ध साहित्य और विहारों का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक उनकी सुरक्षा के लिये आस्थावान बौद्ध समुदाय का अस्तित्व न हो। भारत में बौद्ध समुदाय के अभाव की पू£त डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने की। उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्धधर्म में धर्मान्तरण करकेे लाखों दलितों को बौद्धधर्म में दीक्षित होने की प्रेरणा दी। इसी प्रेरणा के परिणाम स्वरूप आज भारत में बौद्धों की संख्या लगभग दस लाख है।

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राहुल सांकृत्यायन सनातनी हिन्दू साधु (रामोदार स्वामी) के रूप में घुमक्कड़ी करते हुए, आर्य समाजी हो गये थे। एक आर्य समाजी के रूप में वे वेद और निराकार ईश्वर में सारी समस्याओं का हल देखते थे। इस सम्बन्ध में उनके विचार इस प्रकार थे- ‘‘उस समय मैं आर्य समाज के गर्मदली विचारों का समर्थक था, इसके सिवाय वेद के ईश्वरीय होने में किसी की आपत्ति को मैं सहन करने के लिये तैयार न था। वेद में रेल, तार, विमान की बातें मुझे सच्ची मालूम होतीं, यद्यपि अभी तक मैंने उनकी पूरी छानबीन न की थी। आर्य समाजी को अपने लिये हिन्दू कहना मैं शर्म की बात समझता था। आर्य धर्म हिन्दूधर्म से उतना ही दूर है, जितना ईसाई और इस्लामधर्म, यह मैं बराबर कहा करता। भारत पर आर्यधर्म का विशेष अधिकार है। उसकी उन्नति और स्वतन्त्रता आर्यधर्म और एक जातीयता की स्थापना से ही हो सकती है, इसके साथ मैं यह भी समझता था कि आज यद्यपि सभी धर्मानुयायियों का एक हो जाना असम्भव मालूम होता है, किन्तु आर्यधर्म की सत्यता को रोका नहीं जा सकता। विज्ञान के साथ कुछ झूठे विज्ञान भी संसार में खोटे सिक्कों की भांति चल रहे हैं, ऐसे ही झूठे विज्ञानों में डा£वन के विकासवाद को भी मैं समझता था। जब पंडित आत्माराम अमृतसरी की विकासवाद के खण्डन पर लिखी गयी पुस्तक मिली, तो मुझे बड़ी खुशी हुई।’’2 वे आर्यसमाज के सिद्धान्त को ध्रुव सत्य और दयानन्द के एक-एक वाक्य को वेदवाक्य मानते थे।3
ये विचार 22 वर्ष के एक तरुण (1915) के थे, पर 27 वर्ष के होते-होते बौद्धधर्म को जानने की जिज्ञासा उनमें पैदा हो गयी थी। उन्हीं के शब्दों में, (1921) ‘‘आर्य समाज का प्रभाव रहने से सिद्धान्त में मैं द्वैतवादी हो रामानुज का समर्थक रहा। इसी दार्शनिक ऊहापोह में बौद्ध दर्शन के लिये अधिक जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी, रामानुज और शंकर की ओर से, अन्ततः वर्णाश्रम धर्म का श्राद्ध करके दार्शनिक खंडन द्वारा ही बौद्धों का विरोध किया जाता था। और दार्शनिक सिद्धान्तों में रामानुजीय शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, फिर बौद्ध दर्शन क्या है, इधर ध्यान जाना जरूरी था, और पूर्वपक्ष के तौर पर उद्धृत कुछ वाक्यों से मेरी तृप्ति नहीं हो सकती थी।’’4
यह जिज्ञासा और तृप्ति 34 वर्ष की अवस्था में तब पूरी हुई, जब वे (1927) लंका गये और वहां के विद्यालंकार विहार में 19 मास तक रहे। वहां उन्हें पाली त्रिपिटक में बुद्ध वचनों को पढ़ने का अवसर मिला। उस मनः स्थिति का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘फिर राख में छिपे अंगारों या पत्थरों से ढँके रत्न की तरह बीच-बीच में आते बुद्ध के चमत्कारिक वाक्य मेरे मन को बलात् अपनी ओर खींच लेते थे। जब मैंने कालामों को दिये गये बुद्ध के उपदेश- किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल कर उसे मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करके उस पर आरूढ़ हो- को सुना, तो हठात् दिल ने कहा- यहां है एक आदमी, जिसका सत्य पर अटल विश्वास है, जो मनुष्य की स्वतन्त्र बुद्धि के महत्व को समझता है। जब मैंने मज्झिम निकाय में पढ़ा- बेड़े की भाँति मैंने तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, वह पार उतरने के लिये है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिये नहीं; तो मालूम हुआ, जिस चीज को मैं इतने दिनों से ढूँढ़ता फिर रहा था, वह मिल गयी।’’5
अब ईश्वर और वेद भी उनसे छूट गये थे। मन की इस दशा पर उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘अब मेरे आर्य सामाजिक और जन्मजात विचार छूट रहे थे। अन्त में, इस सृष्टि का कत्र्ता भी है, सिर्फ इस पर मेरा विश्वास रह गया था। किन्तु अब तक मुझे यह नहीं मालूम था कि मुझे बुद्ध और ईश्वर में से एक को चुनने की चुनौती दी जायगी। मैंने पहिले पहिल कोशिश की, ईश्वर और बुद्ध दोनों को एक साथ ले चलने की, किन्तु उस पर पग-पग पर आपत्तियां पड़ने लगीं। दो-तीन महीने के भीतर ही मुझे यह प्रयत्न बेकार मालूम होने लगा। ईश्वर और बुद्ध साथ नहीं रह सकते, यह साफ हो गया, और यह भी स्पष्ट मालूम होने लगा कि ईश्वर सिर्फ काल्पनिक चीज है, बुद्ध यथार्थवक्ता हैं। तब, कई हफ्तों तक हृदय में एक दूसरी बेचैनी पैदा हुई- मालूम होता था, चिरकाल से चला आता एक भारी अवलम्ब लुप्त हो रहा है। किन्तु मैंने हमेशा बुद्ध को अपना पथप्रदर्शक बनाया था, और कुछ ही समय बाद उन काल्पनिक भ्रान्तियों और भीतियों का ख्याल आने से अपने भोलेपन पर हँसी आने लगी। अब मुझे डा£वन के विकासवाद की सच्चाई मालूम होने लगी, अब माक्र्सवाद की सच्चाई हृदय और मष्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी।’’6
इस प्रकार राहुल जी 1915 से 1927 तक आर्य समाजी रहे। पर, लंका में रहते ही वे बुद्ध के अनुयायी हो गये थे। उनमें तिब्बत जाकर बौद्ध साहित्य को खोज कर लाने की भी जिज्ञासा पैदा हो गयी थी। अतः तिब्बत में सवा वर्ष बिताने के बाद, जब वे 1930 में दूसरी बार लंका गये, तो वे विधिवत उपसम्पदा लेकर बौद्धधर्म में प्रब्रजित हो गये थे। अपनी प्रब्रज्या का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘उपसम्पदा के लिये कांडी जाने से पहले विद्यालंकार विहार में नायकपाद के उपाध्यायत्व में मेरी प्रब्रज्या (22 जून) हुई। मैं लंका में रामोदार स्वामी के नाम से प्रसिद्ध था, और लंका छोड़ने से पूर्व ही अपने गोत्र को जोड़कर अपने को रामोदार सांकृत्यायन बना चुका था। मैं समझता था, यही नाम बना रहेगा, क्योंकि इस नाम से मैं साहित्यिक क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुका था, किन्तु प्रब्रज्या संस्कार शुरु होने के चन्द ही मिनट पहले नायकपाद की आज्ञा हुई नये नामकरण की। समय होता, तो मैं समझाने की कोशिश करता, किन्तु अब कुछ करना आज्ञा भंग होता। नाम शायद एकाध और पेश किये गये थे, किन्तु मैंने रामोदार के ‘रा’ की साम्यता के देखते हुए राहुल नाम का प्रस्ताव किया और वह स्वीकृत हुआ। इस प्रकार राहुल सांकृत्यायन के नाम से मैं प्रब्रजित (श्रामणेर) हुआ।’’7
ऊपर राहुल जी का वक्तव्य बताता है कि उन्हें बुद्ध के दर्शन ने इतना प्रभावित किया कि न केवल डा£वन के विकासवाद में उनको सच्चाई नजर आने लगी थी, बल्कि माक्र्सवाद की सच्चाई भी उनके हृदय और मस्तिष्क में पेबस्ता जान पड़ने लगी थी। उस समय तक वे समाजवादी व्यवस्था के महत्व को समझने लगे थे और बद्ध उन्हें स्वतन्त्रता, समानता और करुणा (भ्रातृत्व) के समर्थक एवं जनतन्त्र के पक्षधर के रूप में दिखायी देने लगे थे। वे बुद्ध के प्रजातांत्रिक विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे। उन्होंने एक जगह लिखा है- ‘‘बुद्ध का जन्म एक प्रजातन्त्र (शाक्य) में हुआ था, और मृत्यु भी एक प्रजातन्त्र (मल्ल) ही में हुई। प्रजातन्त्र प्रणाली उनको कितनी प्रिय थी, यह इसी से मालूम है कि अजातशत्रु के साथ अच्छा सम्बन्ध होने पर भी उन्होंने उसके विरोधी वैशाली के लिच्छवियों की प्रशंसा करते हुए राष्ट्र को अपराजित रखने वाली (ये) सात बातें बतलायीं- (1) बराबर एकत्रित हो सामूहिक निर्णय करना, (2) निर्णय के अनुसार कर्तव्य को एक हो करना, (3) व्यवस्था (कानून और विनय) का पालन करना, (4) वृद्धों का सत्कार करना, (5) स्त्रियों पर जबरदस्ती नहीं करना, (6) जातीय धर्म का पालन करना, (7) धर्माचार्यों का सत्कार करना।’’8
लेकिन राहुल माक्र्सवादी दर्शन का भी इस काल में बराबर अध्ययन कर रहे थे और बुद्ध का विचार-स्वतान्त्रय इस अध्ययन में उनकी सहायता कर रहा था। इसलिये, उन्होंने बौद्धधर्म का द्वन्द्वात्मक अध्ययन किया और वे माक्र्सवाद की ओर मुड़ गये। हालांकि, बुद्ध और उनके धर्म के प्रति उनका अनुराग कभी खत्म नहीं हुआ था, पर भिक्षुवेश उन्होंने त्याग दिया था।9 भदन्त बोधानन्द के प्रति अपने संस्मरण लेख में इसका जिक्र उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘त्रिपिटक में कुछ अधिक प्रवेश करते ही वेद, ईश्वर और आर्यसमाज ने साथ छोड़ दिया, मैं अनीश्वरवादी नास्तिक बन गया। बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के प्रति मेरा अनुराग हो गया। उसके बाद तो कोई धर्म मुझे आकृष्ट नहीं कर सका। बुद्ध से अगली मंजिल में माक्र्स मुझे मिले। भौतिकवाद मेरा दर्शन हो गया। पर, बुद्ध के मधुर व्यक्तित्व का आकर्षण मेरे मन से कभी नहीं गया।’’10
राहुल की जीवन-यात्रा एक स्थान या एक विचार पर स्थिर रहने वाली नहीं थी। वे ऐसे प्रगतिशील थे, जो खूंटे से बँधकर नहीं रह सकते थे। अतः बौद्धधर्म के प्रति अपने लगाव के भविष्य को वे जानते थे। इसलिये, जब अनागारिक धर्मपाल ने उन्हें धर्म प्रचारक बनाने के लिये उन पर दबाव डालने के लिये कई पत्र लिखे, तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उस स्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी ‘जीवन यात्रा’ में लिखा है- ‘‘कोई समय था कि जब मैं धर्मप्रचारक बनने का तीव्र अनुरागी था, लेकिन अब अवस्था बिल्कुल बदल गयी थी। बौद्धधर्म के साथ भी मेरा कच्चे धागे का ही सम्बन्ध था। हाँ बुद्ध के प्रति मेरी श्रद्धा कभी कम नहीं हुई। मैं उन्हें भारत का सबसे बड़ा विचारक मानता रहा हूँ और मैं समझता हूँ कि जिस वक्त दुनिया के धर्म का नामोनिशान न रह जायगा, उस वक्त भी लोग बड़े सम्मान के साथ बुद्ध का नाम लेंगे।’’11 उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘मैंने उनके वचनों के पढ़ने के बाद समझा कि वह भी दुनिया के साम्यवादी बनने का सपना देखते थे।’’12
राहुल ने बुद्ध के धर्म का बेड़े की तरह पार उतरने के लिये ही उपयोग किया। वे विचारों से माक्र्सवादी हो चुके थे, पर अभी भिक्षुवेश उन्होंने नहीं त्यागा था। उसका उपयोग उन्होंने लन्दन, नेपाल और बौद्ध देशों की यात्राओं के लिये किया और उसके बाद भिक्षुवेश भी त्याग दिया था।
वे सामन्तवाद और पूंजीवाद की चक्की में पिस रही आम जनता की मुक्ति के दृष्टिकोण से धर्म को देखने लगे थे। इस दृष्टिकोण से बौद्धधर्म के भी अनेक सिऋान्तों से उनकी असहमति बन गयी थी। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बुद्ध तत्कालीन समाज व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे।13 उनका मत था कि ‘‘(बुद्ध ने) दुःख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये, राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों, सारी दुनिया को झगड़ते मरते-मारते देख भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की।’’14
बुद्ध के क्षणिकवाद के दर्शन से राहुल जी सहमत थे, पर उनकी टिप्पणी थी कि इस क्षणिकवाद को उन्होंने समाज की आ£थक व्यवस्था पर लागू नहीं किया था।15 वे इसका कारण बताते हैं कि ऐसा उन्होंने राजाओं और सेठों को अप्रसन्न करने के उद्देश्य से नहीं किया। वे लिखते हैं- ‘‘पुरोहित वर्ग के कूटदंत, सोणदंत जैसे धनी प्रभुताशाली ब्राह्मण उनके (बुद्ध के) अनुयायी बनते थे, राजा लोग उनकी आवभगत के लिये उतावले दिखायी पड़ते थे। उस वक्त का धन कुबेर व्यापारी-वर्ग तो उससे भी ज्यादा उनके सत्कार के लिये अपनी थैलियाँ खोले रहता था, जितने कि आज के भारतीय महासेठ गाँधी के लिये। दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत के साथ व्यापार के महान केन्द्र कौशाम्बी के तीन भारी सेठों ने तो विहार बनवाने में होड़ सी कर ली थी। सच तो यह है कि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने सहायता की। यदि बुद्ध तत्कालीन आ£थक व्यवस्था के खिलाफ जाते, तो यह सुभीता कहाँ से हो सकता था।’’16

3
लेनिन के इस सिद्धान्त को कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है या उसे निजी मामला होना चाहिए, हम आम आदमी पर तो लागू कर सकते हैं, पर विशिष्ट व्यक्ति पर इस सिद्धान्त को लागू नहीं किया जा सकता और लागू किया जाना चाहिए भी नहीं, क्योंकि विशिष्ट व्यक्ति या वह व्यक्ति, जिससे लाखों करोड़ों लोग प्रेरणा लेते हों, जिसके अनुयायी हों, अगर वह धर्मगुरु नहीं है और दुनिया को बदलने की शिक्षा देता है, तो वह, धर्म को अपना निजी मामला नहीं बना सकता। राहुल सांकृत्यायन एक धर्मगुरु या धर्मप्रचारक की भूमिका त्याग कर दुनिया को बदलने की भूमिका में उतरे थे, तो धर्म को देखने की उनकी दृष्टि वही नहीं रह गयी थी, जो एक सनातनी और आर्य समाजी प्रचारक की होती है। वे लाखों दीन-दुखियों के हित में धर्म के सिद्धान्तों को अलौकिक नहीं, लौकिक आधार पर परखने लगे थे। इसलिये जनता के सामाजिक और आ£थक शोषण पर जीवित रहने वाले धर्म उनके लिये घृणास्पद थे।
डा. आंबेडकर भी धर्म को अछूतों की दृष्टि से देखते थे। वे हिन्दूधर्म का विरोध इसी आधार पर करते थे कि वह सामाजिक अलगाववाद का समर्थन करता है और मानवता के एक विशाल समुदाय को समस्त मानवाधिकारों से वंचित रखता है। वे दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार करने की शिक्षा देने वाले हिन्दूधर्म को धर्म के नाम पर कलंक मानते थे।17 उन्होंने लिखा है, ‘‘अछूतों की समस्या का सीधा सम्बन्ध हिन्दुओं के सामाजिक व्यवहार से है। अस्पृश्यता तभी मिटेगी, जब हिन्दू अपनी मनोवृत्ति बदलेंगे। समस्या यह है कि वह कौन सा तरीका है, जिससे हिन्दू जीवन-शैली को भुला दें। यह कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं है कि कोई समूचा राष्ट्र अपनी बंधी-बंधायी जीवन-शैली को त्याग दे। हिन्दू जिस जीवन-शैली के आदी हैं, वह ऐसी है, जिसे उनका धर्म प्रमाणित करता है। अतः उनकी जीवन-शैली को बदलना उनके धर्म को बदलने जैसा ही है।’’18
यहां आंबेडकर स्पष्ट रूप से इस मत के हैं कि हिन्दूधर्म को सुधारा नहीं जा सकता, उसे छोड़ा जा सकता है।19 उन्होंने हिन्दूधर्म में सुधार के लिये लम्बे समय तक संघर्ष किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली और अन्ततः उन्हें हिन्दूधर्म को छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी। उन्होंने 1935 में (15 अक्टूबर) बम्बई में कहा, ‘‘हमने अभी यह तय नहीं किया है कि कौन सा धर्म हम अपनायेंगे, पर यह हमने तय कर लिया है कि हिन्दूधर्म हमारे लिये अच्छा नहीं है।’’20
यह निर्णय आंबेडकर ने कवीथा काण्ड के प्रतिरोध में लिया था। पूना-पैक्ट के तीन साल बाद 1935 में यह काण्ड हुआ। बम्बई सरकार ने उस समय सार्वजनिक स्कूलों में अछूतों के बच्चों को प्रवेश देने के आदेश जारी किये थे। 8 अगस्त 1935 को कवीथा गांव के अछूत अपने चार बच्चों को स्कूल में दाखिल कराने के लिये ले गये। इसके विरोध में सभी हिन्दुओं ने अपने बच्चों को स्कूल से हटा लिया और रात में घात लगा कर अछूतों की बस्ती पर डंडों, भालों और तलवारों से हमला कर दिया। बाद में हिन्दुओं ने सभी अछूतों का सामाजिक बहिष्कार भी कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि अछूत पीने के पानी तक के लिये तरस गये। इसके विरुद्ध अछूतों ने मजिस्ट्रेट के यहां मुकदमा दायर कर दिया। इस घटना ने अछूतों में दहशत भर दी। वल्लभ भाई पटेल हिन्दुओं को यह समझाने गये कि वे अछूतों पर जुल्म न करें, पर उन्होंने उनकी एक न सुनी। गांधी जी ने अछूतों को यह सलाह दी कि वे गांव छोड़ दें।21 इस प्रकार, इस संघर्ष में अछूतों को ही दबाया गया। आंबेडकर लिखते हैं कि जब भी हिन्दू अराजकता पर उतर आते हैं, तो अछूत हमेशा ही असहाय हो जाते हैं।22
आंबेडकर की घोषणा की प्रतिक्रिया में गांधी ने नासिक में कहा कि धर्म कोई मकान या वस्त्र नहीं है, जिसे बदला जा सके, धर्म आदमी का जरूरी अंग है। इसका उत्तर आंबेडकर ने इन शब्दों में दिया, ‘‘मैं गांधी जी से सहमत हूँ कि धर्म जरूरी है, परन्तु मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि आदमी को अपने उस पुश्तैनी धर्म से चिपटा रहना चाहिए, जो उसके लिये घृणास्पद हो, अपमानजनक हो और उसे आगे बढ़ने की कोई प्रेरणा न देता हो।’’23 उन्होंने आगे कहा कि कवीथा में जो हुआ, वह अनोखी घटना नहीं है, वह हिन्दुओं के पुश्तैनी धर्म में मौजूद व्यवस्था पर आधारित है।24 इस धर्म को दलितों को छोड़ना ही होगा।25
राहुल के सामने उनका कोई जातीय समाज नहीं था, जिसे वे बदलना चाहते थे। वे ब्राह्मण थे, पर ब्राह्मणों को सुधारने या उनकी मुक्ति के (किसी कार्यक्रम के) दायित्व से मुक्त थे। किन्तु आंबेडकर इस दायित्व से मुक्त नहीं थे। उनके सामने उनका विशाल अछूत समाज था, जिसे हिन्दुओं और उनके धर्म ने मानवीय गरिमा और अधिकारों से वंचित करके रखा था। इसलिये, आंबेडकर आरम्भ से ही इस खोज में रहे कि धर्म का अर्थ क्या है, हिन्दूधर्म से अछूत समुदाय का क्या सम्बन्ध है? और कोई दूसरा धर्म उनकी स्थिति को बदल सकता है या नहीं?
राहुल भले ही यह नहीं देख सके थे कि ब्राह्मण हिन्दूधर्म और उसकी व्यवस्था को क्यों पसन्द करते थे और क्यों उसमें कोई सुधार नहीं चाहते थे? किन्तु, आंबेडकर ने यह अच्छी तरह देख लिया था कि हिन्दुओं की वर्णव्यवस्था ब्राह्मणों के लिये स्वर्ग की व्यवस्था है, जिसमें वे सबसे श्रेष्ठ और सबसे पूज्य बने हुए हैं। वे यह भी देख रहे थे कि हिन्दू अछूतों पर इसलिये अत्याचार नहीं करते हैं कि वे क्रूर हैं, बल्कि इसलिये करते हैं, क्योंकि उनका धर्म उन्हें ऐसा करने की शिक्षा देता है।26 एक स्थान पर आंबेडकर ने लिखा है, ‘‘हिन्दू चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह जो कुछ करता है, धर्म के अनुसार करता है। वह खाता धर्म के अनुसार है, पीता धर्म के अनुसार है, नहाता धर्म के अनुसार है, पहनता धर्म के अनुसार है, उसका जन्म धर्म के अनुसार होता है, विवाह धर्म के अनुसार होता है और धर्म के अनुसार ही उसे जलाया जाता है। उसके सारे कार्य धर्मानुसार होते हैं। धर्मनिरपेक्षता के दृष्टिकोण से येे काम गलत हो सकते हैं, पर ये इसलिये पापपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि ये धर्म द्वारा स्वीकृत हैं। इसलिये यदि कोई हिन्दू पाप का अभियुक्त होता है, तो वह गर्व से कहता है कि यदि मैं पाप करता हूँ तो पाप भी धर्म के अनुसार कर रहा हूँ।’’27
आंबेडकर अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि अछूतों के लिये हिन्दूधर्म इसलिये अमानवीय है, क्योंकि अछूत हिन्दू समाज के अंग नहीं हैं। दूसरे शब्दों में वे हिन्दूधर्म के बाड़े से बाहर के हैं। आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘हिन्दुओं और अछूतों के बीच क्या सम्बन्ध है, इसकी सटीक व्याख्या बम्बई के एक सम्मेलन में सनातनी हिन्दुओं के नेता ऐनापुरे शास्त्री ने की है। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं के साथ अछूतों का सम्बन्ध वैसा ही है, जैसा किसी मनुष्य का उसके जूतों के साथ होता है। आदमी जूते पहनता है, इस दृष्टि से वह मनुष्य के साथ है और कहा जा सकता है कि वह मनुष्य के हैं। लेकिन जूते शरीर का अंग नहीं है, क्योंकि जिन दो चीजों को किसी इकाई से अलग किया जा सकता है, उन्हें उस इकाई का अंग नहीं कहा जा सकता।’’28
आंबेडकर की दृष्टि में यह एक अत्यन्त सटीक उपमा थी।29 उनके पास इसका मजबूत आधार भी है। उनके अनुसार, अछूत वर्णव्यवस्था के अंग नहीं है। वे उसके बाहर के हैं, अर्थात् अवर्ण हैं। वे लिखते हैं, ‘‘हिन्दू विधान के निर्माता मनु ने अपने नियम में कहा है कि वर्ण केवल चार हैं और पांचवाँ वर्ण नहीं होगा। मनु अछूतों को उस भवन में प्रवेश दिलाने को तैयार नहीं थे, जिसे प्राचीन हिन्दुओं ने वर्णव्यवस्था में विस्तार कर उसे पांच वर्णों के लिये बनाना चाहा था। मनु ने अछूतों को वर्ण बाह्य कह कर वर्णव्यवस्था से बाहर रखा है। आदिम और जरायम पेशा जातियों के विरुद्ध हिन्दू समाज में प्रवेश के लिये कोई निश्चित वर्जना नहीं है। वे कालान्तर में उसके सदस्य बन सकते हैं। फिलहाल वे हिन्दू समाज से जुड़े हैं और उसके बाद वे उसमें घुलमिल सकते हैं तथा उसका अंग बन सकते हैं। लेकिन अछूतों की स्थिति अलग है। हिन्दू समाज में उनके विरुद्ध निश्चित वर्जना है। उसके सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्हें अलग-थलग ही रहना होगा और वे हिन्दू समाज का अंग न हैं और न बन सकते हैं।’’30 वे अन्यत्र कहते हैं हिन्दू भी यह जानते हैं कि अछूत उनके समाज के अंग नहीं हैं। यही कारण है कि हिन्दुओं में नैतिक दृष्टि से अछूतों के प्रति कोई चिन्ता या ममत्व नहीं होता है।’’31
आंबेडकर की सबसे बड़ी चिन्ता थी कि अछूत अनेकों जातियों-उपजातियों में विभाजित हैं और उनके बीच मौजूद सामाजिक भेदभाव उन्हें एक नहीं होने देता। हिन्दू समाज में ब्राह्मण एक वर्ग है, क्षत्रिय एक वर्ग है और वैश्य एक वर्ग है। प्रत्येक वर्ग में अनेक जातियाँ होने के बावजूद उनके बीच सामाजिक अलगाव नहीं है, वरन् रोटी-बेटी का सम्बन्ध है। इनमें से प्रत्येक वर्ग में अपनी ही जाति में विवाह व£जत है। (मिश्रा-मिश्रा में नहीं, शुक्ला में विवाह करेगा।) किन्तु यही वर्ण चेतना शूद्रों और अछूतों में नहीं है, जिसके कारण उनमें सामाजिक एकता का सदैव अभाव रहता है।
इसलिये आंबेडकर ऐसे धर्म की तलाश में थे, जो निम्न जातियों को एक वर्ग में संगठित कर दे और उनका सांस्कृतिक विकास करे। वे इस मत के नहीं थे, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं कि धर्म समाज के लिये आवश्यक नहीं है। वे जीवन और सामाजिक आचरण के लिये धर्म को आवश्यक मानते थे।32 वे कहते थे कि धर्म अफीम नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है। पर, वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे।33 वे कहते थे कि आदमी सिर्फ रोटी खाकर जीवित नहीं रह सकता। उसके पास एक मन भी है, जिसे विचार के लिये आहार चाहिए। यह आहार उसे धर्म से ही मिलता है। धर्म ही उसे आशावादी बनाता है और आगे बढ़ने की शक्ति देता है।34 उनकी दृष्टि में धर्म और दासता दो परस्पर विरोधी चीजें थीं। कोई भी धर्म, जो आदमी को दास बनाता है, वह उनके लिये धर्म नहीं था।35
आंबेडकर ने अपने सिद्धान्त के आधार पर सभी धर्मों पर विचार किया- न केवल ईसाई और इस्लाम धर्मों पर, बल्कि आर्य समाज और सिख धर्म के बारे में भी।36 मई 1936 में कोलम्बो से एक इटैलियन बौद्ध भिक्षु लोकनाथ ने भारत आकर आंबेडकर से भेंट की और उन्हें इस बात पर सहमत करने की कोशिश की कि यदि अछूत लोग बौद्धधर्म ग्रहण कर लेते हैं, तो वे समाज में नैतिक, धा£मक और सामाजिक रूप से उच्चतर स्तर प्राप्त कर लेंगे। यद्यपि आंबेडकर ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया था,37 पर बौद्धधर्म के प्रति उनमें सम्मान का भाव पहले ही से था।38
इस विषय पर आंबेडकर का अध्ययन निरन्तर चल रहा था। वे अस्पृश्यता के उद्गम के ऐतिहासिक आधार को भी देखना चाहते थे, ताकि जिस धर्म को वे स्वीकार करें, उसमें अछूतों की ऐतिहासिक संगति भी बैठ सके। शीघ्र ही उन्होंने अपना एक लम्बा साक्षात्कार ‘दि बाम्बे क्राॅॅनिकल’ को दिया, जो उसके 24 फरवरी 1940 के अंक में प्रकाशित हुआ।39 इस साक्षात्कार में उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि वैदिक काल में और उसके बाद शताब्दियों तक अस्पृश्यता का अस्तित्व नहीं मिलता है। इसका बहुत बाद में उद्गम हुआ और इसका सम्बन्ध बौद्धधर्म के बाद परिवर्तनों से पैदा हुई परिस्थितियों से है। उन्होंने उस युग का उल्लेख किया, जब कुछ लोग अपने ऋषि आधारित जीवन के लिये एक जगह बस गये थे, पर बहुत से दूसरे लोग अपने पशुओं के चारे के लिये जगह-जगह घूमते रहते थे। बसे हुए किसानों को अपनी भूमि, मकान और फसल की सुरक्षा घुमन्तु लोगों से करनी होती थी। इससे बचने और शान्ति पूर्ण जीवन जीने के लिये उन्होंने कुछ घुमन्तु लोगों की सेवाएं लीं। उन्हें कुछ जमीनें और घर देकर गांव के बाहर बसा दिया और उनको गांव की सुरक्षा का काम सौंप दिया। वे पीढि़यों तक इस काम को करते रहे। गांव के भीतर और गांव के बाहर किनारों पर रहने वाले इन लोगों के बीच सामान्य मानवीय सम्बन्ध थे- किसी तरह की अस्पृश्यता नहीं थी।40 तब, अस्पृश्यता कैसे पैदा हुई? आंबेडकर कहते हैं कि इसके लिये भारत में बौद्धधर्म के उदय को देखना होगा।
आंबेडकर के अनुसार, भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब बौद्धधर्म ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था। देश की जनता और सारा व्यापारी वर्ग बौद्धधर्म में चला गया था। ब्राह्मणवाद का पतन हो गया था, जो शताब्दियों से राज कर रहा था। बुद्ध ने तीन शिक्षाएं दीं- सामाजिक समानता की, वर्णव्यवस्था के उन्मूलन की और अहिंसा के सिद्धान्त की, जिसमें धर्म के नाम पर पशु बलि व£जत थी। आंबेडकर ने कहा कि उस समय तक ब्राह्मण शाकाहारी नहीं हुए थे, वे गौओं और अन्य पशुओं की बलि देते थे और उनका मांस खाते थे। जब बुद्ध ने बलि का निषेध किया और गाय को ऋषि और दूध के लिये उपयोगी पशु बताते हुए उसकी सुरक्षा की शिक्षा दी, तो जनता ने उसे अपना लिया। तब, ब्राह्मणों के सामने शाकाहारी बनने के सिवा कोई चारा नहीं था।41
आगे आंबेडकर लिखते हैं कि ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को बौद्धधर्म में जाने से रोकने के मकसद से उन्हें समानता का दर्जा देने की पेशकश की और दोनों ने मिलकर वैश्य और शूद्रों को रोकने के लिये उन दो पुलिस वालों की तरह काम किया, जो कैदी के दोनों तरफ खड़े होकर उसे भागने से रोकते हैं।42 अब गाय पवित्र हो गयी थी और उसकी बलि देने की प्रथा समाप्त हो गयी थी। बहुत सारी बुद्ध शिक्षाएं हिन्दूधर्म में समाहित कर लीं गयी थीं। जो जनता बौद्धधर्म में चली गयी थी, वह भी धीरे-धीरे वापिस आने लगी थी। बुद्ध की जो सबसे बड़ी शिक्षा ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं की, वह थी समानता की शिक्षा और वर्णव्यवस्था का उन्मूलन। पर, उन्होंने यह जरूर किया कि कुछ समय के लिये क्षत्रियों को अपने समान दर्जा दिया और ब्राह्मण देवताओं को हटा कर उनके स्थान पर क्षत्रिय देवताओं को स्थापित कर उनके साथ अन्य समयानुकूल समझौते कर लिये।43
आगे आंबेडकर कहते हैं, न तो बुद्ध ने और न ब्राह्मणों ने मृतक पशु के मांस को खाने पर रोक लगायी थी। रोक सिर्फ जीवित गाय का वध करने पर थी। पर, आज के अछूतों का एक बड़ा अपराध यह है कि वे गरीबों में सबसे गरीब और सामाजिक रूप से सबसे निचले स्तर के होने के कारण बौद्धधर्म में लम्बे समय तक बने रहे और मृतक पशु का मांस खाते रहे। उनको सुधारने के लिये एक बड़ी शक्ति की जरूरत थी, जो उनके लिये लम्बे समय तक काम करती। पर ऐसा कोई काम तो नहीं हुआ, उलटे, सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता उन पर लागू कर दी गयी।44
आंबेडकर का निष्कर्ष था कि उनकी मृतक गाय का मांस खाने की आदत ही उनके शोषण का कारण बनी। यही वह चीज थी, जिससे स्वाभाविक रूप से हिन्दुओं को उनसे घृणा हुई। इसी वजह से उस पूरे वर्ग पर अस्पृश्यता थोप दी गयी। यह वास्तव में वह दण्ड था, जो ब्राह्मणों ने उन्हें बौद्धधर्म में बने रहने के लिये दिया था, जबकि अन्य लोगों ने बौद्धधर्म छोड़ दिया था। आंबेडकर कहते हैं कि इसलिये शिक्षा और स्वतन्त्रता तथा सामाजिक समानता के सभी आधुनिक विचारों के बावजूद आज तक अस्पृश्यता बनी हुई है।45
आंबेडकर ने अपने इस शोध को ‘दि अनटचेबिल्स’ नाम से प्रकाशित कराया, जो अछूतपन के ऐतिहासिक आधार को रेखांकित करने वाली एक महत्वपूर्ण पुस्तक के रूप में च£चत है। यह सिद्ध करने के बाद कि आज के अछूत किसी समय बौद्ध थे, उनका बौद्धधर्म में जाने का रास्ता आसान हो गया था। अतः आंबेडकर ने 2 मई 1950 को नयी दिल्ली में, बुद्ध जयन्ती के अवसर पर भारत के अछूतों से बौद्धधर्म ग्रहण करने की अपील की।46 इस अपील पर दूसरे दिन 15 अछूतों ने दिल्ली में बौद्धधर्म ग्रहण किया।47 इस अवसर पर, डा. आंबेडकर ने हिन्दी में तीस मिनट का संक्षिप्त व्याख्यान दिया था, जिसमें उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत में पुनः बौद्धधर्म का उदय होगा। उन्होंने आगे कहा कि न राम और न ही कृष्ण बुद्ध का मुकाबला करते हैं, बुद्ध के बराबर कोई भगवान नहीं है और न आगे ऐसा कोई महान धर्मगुरु और शास्ता पैदा होगा।48 6 जून 1950 को उन्होंने कोलम्बो में कहा था, ‘‘यह आम धारणा बन गयी है कि बौद्धधर्म भारत से लुप्त हो गया है। मैं मानता हूँ कि यह भौतिक रूप में लुप्त हुआ है, पर एक अमूर्त (बौद्धिक) शक्ति के रूप में यह अभी भी अस्तित्व में है।’’49
आंबेडकर ने देश के बहुत से भागों में जाकर अछूतों की सभाएं कीं और उन्हें बौद्धधर्म के विषय में जानकारी दी। उन्होंने स्वयं को पूरी तरह बौद्धधर्म के विस्तार के लिये सम£पत कर दिया था।50 अन्ततः उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को विजया दशमी के दिन नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ पूज्य महास्थविर चन्द्रमणि जी के नेतृत्व में बौद्धधर्म की दीक्षा ली और भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार का झण्डा गाड़ दिया। बाद में, उन्होंने बाइबिल और कुरान की तरह बौद्धों के लिये भी एक धर्मग्रन्थ की रचना की, जो ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नाम से प्रसिद्ध है।

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हमने देखा कि राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर दोनों बौद्धधर्म तक पहुंचे, पर अलग-अलग रास्तों से और अलग-अलग कारणों से। राहुल भारत में बौद्ध समाज नहीं बना पाये। पर, आंबेडकर ने इसी कमी को पूरा किया। लेकिन इस बात को लेकर दोनों एक मत के थे कि बौद्धधर्म हिन्दूधर्म का अंग नहीं है। राहुल की दृष्टि में बौद्ध हिन्दू नहीं थे।51 किन्तु, बुद्ध के जीवन, सिद्धान्तों और दर्शन के सम्बन्ध में दोनों विद्वानों के विचार समान नहीं हैं। उदाहरण के लिये आंबेडकर ने बुद्ध के जीवन और दर्शन को उसी रूप में स्वीकार नहीं किया, जिस रूप में वह परम्परा में मौजूद था। किन्तु, राहुल काफी हद तक परम्परा में प्रचलित बुद्ध के जीवन-दर्शन को ही स्वीकार करते हैं। बुद्ध के जन्म की इस कहानी पर राहुल और आंबेडकर एक मत हैं कि बुद्ध ने अपने जन्म के बारे में सोच कर यह तय किया कि कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन मेरे पिता होंगे और मेरी माता महामाया नामक देवी होंगी। तब उन्होंने महामाया को स्वप्न में आकर बताया कि क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था, बड़ी प्रसन्नता से। और उसी समय बोधिसत्त्व ने महामाया के गर्भ में प्रवेश किया।52
लेकिन बुद्ध ने गृहत्याग की कहानी पर राहुल के विचार परम्परागत हैं, जबकि आंबेडकर उसको तर्क की कसौटी पर कसते हैं और उसके मूल में राजनैतिक कारण मानते हैं। राहुल का वही (परम्परागत) मत है- ‘‘वृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित ;संन्यासीद्ध के चार दृश्यों को देखकर उनकी (सिद्धार्थ की) संसार से विरक्ति पक्की हो गयी और एक रात वह चुपके से घर से भाग निकले।’’53 राहुल भी घर छोड़कर भागे थे, अपने पिता, माँ और ब्याहता किसी का भी मोह उन्होंने नहीं पाला था। पर, आंबेडकर को बुद्ध का इस तरह पलायन करना ठीक नहीं लगा था। यह उनके गले भी नहीं उतरा था। वे लिखते हैं- ‘‘जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या (गृहत्याग) ग्रहण की, उस समय उनकी आयु 29 वर्ष की थी। यदि सिद्धार्थ ने इन्हीं तीन दृश्यों (वृद्ध, रोगी और मृतक) को देखकर प्रव्रज्या ग्रहण की, तो यह कैसे हो सकता है कि 29 वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बूढ़े, रोगी तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो? ये जीवन की ऐसी घटनाएं हैं, जो रोज ही सैकड़ों, हजारों घटती रही हैं और सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु होने से पहले भी इन्हें देखा ही होगा। इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असम्भव है कि 29 वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बूढ़े, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और 29 वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम बार देखा। यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती।’’54
डा. भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है कि वृद्ध, रोगी और मृत व्यक्ति को देखकर गृहत्याग की मान्यता ‘‘वे अट्टकथाएँ हैं, जिन्हें बुद्धघोष तथा अन्य आचार्यों ने भगवान बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद परम्परागत सिंहल अट्टकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पाली भाषा में लिखा।’’55 उनके अनुसार त्रिपिटक के किसी भी ग्रन्थ में गृहत्याग के इस कथानक का कहीं उल्लेख नहीं है।56
आंबेडकर ने परम्परागत मान्यता के विरुद्ध ‘खुद्दक निकाय’ के ‘सुत्तनिपात’ के अट्ठकवग्ग में अत्तदण्डसुत्त की इन गाथाओं को बुद्ध के गृहत्याग का आधार बनाया- ‘‘शस्त्र धारण भयावह लगा। मुझमें वैराग्य उत्पन्न हुआ, यह मैं बताता हूँ। अपर्याप्त पानी मैं जैसे मछलियां छटपटाती हैं, वैसे एक-दूसरे से विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर मेरे मन में भय उत्पन्न हुआ। चारों ओर का जगत असार दिखायी देने लगा, सब दिशाएं काँप रही हैं, ऐसा लगा और उसमें आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भय स्थान नहीं मिला, क्योंकि अन्त तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध हुए देखकर मेरा जी ऊब गया।’’57
आंबेडकर का मत है कि शाक्यों और कोलियों में रोहिणी नदी के पानी को लेकर झगड़े होते थे। शाक्य संघ ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध का प्रस्ताव पारित किया, जिसका सिद्धार्थ गौतम ने विरोध किया। शाक्य संघ के नियम के अनुसार बहुमत के विरुद्ध जाने पर दण्ड का प्राविधान था। संघ ने तीन विकल्प रखे- (1) सिद्धार्थ सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लें, (2) फांसी पर लटक कर मरने या देश छोड़कर जाने का दण्ड स्वीकार करें या (3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिये राजी हों। संघ का बहुमत सिद्धार्थ के विरुद्ध था। सिद्धार्थ के लिये सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेने की बात को स्वीकार करना असम्भव था। अपने परिवार के सामाजिक बहिष्कार पर भी वह विचार नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने दूसरे विकल्प को स्वीकार किया और वे स्वेच्छा से देश त्याग कर जाने के लिये तैयार हो गये।58
राहुल सांकृत्यायन ने इसी परम्परागत मान्यता के साथ लिखा है कि सिद्धार्थ गौतम ने अपनी पत्नी और बच्चे को सोता हुआ छोड़कर चुपके से गृहत्याग किया था।59 किन्तु, आंबेडकर इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, उन्होंने पूरी तरह अपने पिता शुद्धोधन, अपनी माता प्रजापति गौतमी और पत्नी यशोधरा से सहमति और अनुमति लेकर घर से अभिनिष्क्रमण किया था।60 राहुल ने सिद्धार्थ की परिवार-विमुखता को गम्भीरता से नहीं लिया, शायद इसलिये कि वे स्वयं भी परिवार-विमुख थे। पर, आंबेडकर ने इसे बहुत गम्भीर प्रश्न माना था। उनकी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति, जो परिवार-विमुख है, समाज-विमुख भी होगा, वह समाज-उन्मुख नहीं हो सकता। इसलिये आंबेडकर ने इस बात को रेखांकित करना ज्यादा जरूरी समझा कि सिद्धार्थ जैसा जनवादी और जागरूक व्यक्ति परिवार-विमुख कैसे हो सकता है? वह परिवार के सदस्यों को धोखा देकर घर छोड़ ही नहीं सकते थे। इस तरह के विश्वासघात की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती थी। आंबेडकर ने लिखा है कि जब सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु छोड़ा, तो अनोमा नदी तक जनता उनके पीछे-पीछे आयी थी, जिसमें उनके पिता शुद्धोधन और उनकी माता प्रजापति गौतमी भी उपस्थित थे।61
वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में पंच वर्गीय ब्राह्मण भिक्षुओं को दिया गया बुद्ध का पहला धर्मोपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र’ के नाम से विख्यात है। इसमें बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी है। पहला आर्य सत्य ‘दुख है’, दूसरा आर्य सत्य ‘दुख का कारण है’, तीसरा आर्य सत्य ‘दुख का निरोध है’, और चैथा आर्य सत्य ‘दुख निरोध का उपाय है।’62 दुख सत्य की व्याख्या करते हुए बुद्ध ने कहा है- ‘‘जन्म भी दुख है, बुढ़ापा भी दुख है, मरण, शोक, रूदन, मन की खिन्नता, हैरानगी दुख है। अप्रिय से संयोग भी, प्रिय से वियोग भी दुख है, इच्छा करके जिसे नहीं पाता, वह भी दुख है। संक्षेप में पांचों उपादान स्कन्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) दुख हैं।’’63 बुद्ध ने दुख का कारण तृष्णा को माना है और तृष्णा के निरोध (विनाश) को दुख का निरोध कहा है। तृष्णा से उपादान (वासना) पैदा होती है, उपादान से जन्म, जन्म से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक आदि पैदा होते हैं। दुख-निरोध का मार्ग है, आर्य आष्टांगिक मार्ग, जो ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयत्न, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।64
राहुल और आंबेडकर दोनों ने चार आर्य सत्यों पर अपने-अपने ढंग से विचार किया है। बुद्ध ने दुख सत्य की जो लौकिक-अलौकिक व्याख्या की है, उसे उसी रूप में राहुल ने भी स्वीकार नहीं किया है और आंबेडकर ने भी। राहुल लिखते हैं, ‘‘यहां उन्होंने (बुद्ध ने) दुख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों सारी दुनिया को झगड़ते, मरते-मारते देख भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की। उनके मतानुसार मानो, काँटों से बचने के लिये सारी पृथ्वी को तो नहीं ढका जा सकता है, हाँ अपने पैरों को चमड़े से ढाँक कर काँटों से बचा जा सकता है। वह समय भी ऐसा नहीं था कि बुद्ध जैसे प्रयोगवादी दार्शनिक सामाजिक पापों को सामाजिक चिकित्सा से दूर करने की कोशिश करते। तो भी, वैयक्तिक सम्पत्ति की बुराइयों को वह जानते थे, इसीलिये जहाँ तक उनके अपने भिक्षु-संघ का सम्बन्ध था, उन्होंने उसे हटा कर भोग में पूर्ण साम्यवाद स्थापित करना चाहा।’’65
राहुल ने बुद्ध के दुख-विनाश के मार्ग की भौतिकवादी व्याख्या की है। उनके अनुसार, ‘‘बुद्ध तत्कालीन आ£थक व्यवस्था के खिलाफ इसलिये नहीं गये, क्योंकि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने उनकी सहायता की थी।’’66
किन्तु डा. आंबेडकर ने इस तरह की भौतिक व्याख्या नहीं की है। उनका मत है कि बुद्ध ने परिनिर्वाण के बाद बुद्ध वचनों में ब्राह्मणों ने भारी हेर-फेर की है। उन्होंने बुद्ध और उनके वचनों को अपने अनुकूल बनाने का काम इसलिये किया, ताकि आम जनता के लिये वे दुष्कर हो जायें। उन्होंने बुद्ध वचनों को ही अलौकिक नहीं बनाया, वरन् बुद्ध को भी लोकोत्तर सत्ता का रूप दिया। जैसा कि भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है, ‘‘भगवान बुद्ध के बारे में एक बात बड़े ही विश्वास के साथ कही जा सकती है कि वे कुछ नहीं थे, यदि उनका कथन बुद्धिसंगत, तर्क-संगत नहीं होता था।67 आंबेडकर ने इसी आधार पर बुद्ध वचनों को स्वीकार किया। उन्होंने स्वयं लिखा है कि जब हम पाली ग्रन्थों के आधार पर बुद्ध का जीवन चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं, तो हमें यह कार्य सहज प्रतीत नहीं होता और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है।68 वे लिखते हैं कि बुद्ध की चर्या का लेखा-जोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्याएं पैदा करता है, जिनका निराकरण यदि असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। इसलिये, उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि उन समस्याओं पर खुल कर विचार किया जाय। ऐसी उन्होंने चार समस्याओं को रेखांकित किया, जिनमें हम पहली समस्या बुद्ध के गृहत्याग पर ऊपर चर्चा कर चुके हैं। दूसरी समस्या चार आर्य सत्यों से उत्पन्न होती है। इस समस्या पर विचार करते हुए आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘जीवन स्वभावतः दुख है, यह सिद्धान्त जैसे बुद्धधर्म की जड़ पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन भी दुख है, मरण भी दुख है, पुनरुत्पत्ति भी दुख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है। न धर्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही। यदि दुख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धर्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुख से मुक्ति दिलाने के लिये क्या कर सकते हैं, क्योंकि जन्म ही स्वभावतः दुखमय है? ये चारों आर्यसत्य, जिनमें प्रथम आर्यसत्य ही दुख-सत्य है, अबौद्धों द्वारा बौद्धधर्म ग्रहण किये जाने के मार्ग में बड़ी बाधा है। ये उनके गले आसानी से नहीं उतरते। ये सत्य मनुष्य को निराशावाद के गढ़े में ढकेल देते हैं। ये सत्य बुद्ध के धम्म को एक निराशावादी धर्म के रूप में उपस्थित करते हैं।’’69 आंबेडकर चार आर्यसत्यों को बुद्ध की मूल शिक्षा के विपरीत और परवर्ती भिक्षुओं द्वारा किया गया प्रक्षिप्तांश मानकर पूरी तरह अस्वीकार कर देते हैं।70
आंबेडकर की तीसरी समस्या आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को लेकर है। किन्तु, पहले हम यह देखेंगे कि इस सम्बन्ध में राहुल सांकृत्यायन का मत क्या है? बुद्ध अनात्मवादी और अनीश्वरवादी थे। अर्थात् वे आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते थे। इस सम्बन्ध में ‘प्रतीत्य-समुत्पाद’ (क्षणिकवाद) बुद्ध का बहुत ही क्रान्तिकारी दर्शन है। पर, राहुल लिखते हैं, ‘‘तो भी इस क्रान्तिकारी दर्शन ने अपने भीतर से उन तत्वों (धर्म) को हटाया नहीं था, जो समाज की प्रगति को रोकने का काम देते हैं। पुनर्जन्म की यद्यपि बुद्ध ने नित्य आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में आवागमन के रूप में मानने से इनकार किया था, तो भी दूसरे रूप में परलोक और पुनर्जन्म को माना था। जैसे इस शरीर में जीवन विच्छिन्न प्रवाह (नष्ट-उत्पत्ति-नष्ट-उत्पत्ति) के रूप में एक तरह की एकता स्थापित किये हुए है, उसी तरह वह शरीरान्त में भी जारी रहेगा। पुनर्जन्म के दार्शनिक पहलू को और मजबूत करते हुए पुनर्जन्म का पुनर्जन्म प्रतिसन्धि के रूप में किया अर्थात् नाश और उत्पत्ति की संधि (श्रृंखला) से जुड़कर जैसे जीवन-प्रवाह इस शरीर में चल रहा है, उसी तरह उसकी प्रतिसन्धि (जुड़ना) एक शरीर से अगले शरीर में होती है। अविकारी ठोस आत्मा में पहले के संस्कारों को रखने का स्थान नहीं था, किन्तु क्षणपरिवर्तनशील तरल विज्ञान (जीवन) में उसके वासना या संस्कार के रूप में अपना अंग बनकर चलने में कोई दिक्कत न थी। क्षणिकता सृष्टि की व्याख्या के लिये पर्याप्त थी, किन्तु ईश्वर का काम संसार में व्यवस्था, समाज में व्यवस्था ;शोषित को विद्रोह से रोकने की चेष्टाद्ध कायम करना भी है। इसके लिये बुद्ध ने कार्य के सिद्धान्त को और मजबूत किया। आवागमन, धनी-निर्धन का भेद उसी कर्म के कारण है, जिसके कर्ता कभी तुम खुद थे, यद्यपि आज वह कर्म तुम्हारे लिये हाथ से निकला तीर है।’’71
राहुल आगे लिखते हैं, ‘‘बुद्ध के प्रतीत्य-समुत्पाद को देखने पर, जहां तत्काल प्रभुवर्ग भयभीत हो उठता, वहां प्रतिसंधि और कर्म का सिद्धान्त उन्हें बिल्कुल निश्चिन्त कर देता था। यही वजह थी, जो कि बुद्ध के झण्डे के नीचे हम बड़े-बड़े राजाओं, सम्राटों, सेठ-साहूकारों को आते देखते हैं, और भारत से बाहर लंका, चीन, जापान, तिब्बत में तो उनके धर्म को फैलाने में राजा सबसे पहले आगे बढ़े। वे समझते थे कि यह धर्म सामाजिक विद्रोह के लिये नहीं, बल्कि सामाजिक स्थिति को स्थापित रखने के लिये बहुत सहायक साबित होगा।’’72 राहुल ने माक्र्सवादी दृष्टिकोण से बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था। इसलिये उन्होंने कहा, ‘‘वर्गदृष्टि से देखने पर बौद्धधर्म शासक वर्ग के एजेन्ट की मध्यस्थता जैसा था, वर्ग के मौलिक स्वार्थ को बिना हटाये वह अपने को न्याय-पक्षपाती दिखलाना चाहता था।’’73
डा. आंबेडकर ने बौद्धधर्म का अध्ययन इस दृष्टि से नहीं किया था। उनका देखने का नजरिया यह था कि बौद्धधर्म का उदय, उसका विकास और प्रभाव ब्राह्मणवाद के लिये घातक था। इसलिये, बौद्धधर्म को विकृत करने का काम ब्राह्मणवाद की विजय के लिये उन ब्राह्मणों ने किया था, जो छद्म रूप से बौद्धधर्म में चले गये थे। आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त भी उन्हीं छद्म बौद्धों की देन हैं। इसलिये आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व से इनकार किया। लेकिन साथ ही उन्होंने कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त का भी समर्थन किया है। प्रश्न पैदा हो सकता है कि आत्मा ही नहीं, तो कर्म कैसा? आत्मा ही नहीं, तो पुनर्जन्म कैसा? ये सचमुच टेढ़े प्रश्न हैं। बुद्ध ने ‘कर्म’ तथा ‘पुनर्जन्म’ शब्दों का प्रयोग किन विशिष्ट अर्थों में किया है? क्या बुद्ध ने इन शब्दों का किन्हीं ऐसे विशिष्ट अर्थों में प्रयोग किया, जो अर्थ उन अर्थों से सर्वथा भिन्न थे, जिन अर्थों में बुद्ध के समकालीन ब्राह्मण इन शब्दों का प्रयोग करते थे? यदि हां, तो वह अर्थभेद क्या था? अथवा, उन्होंने उन्हीं अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग किया, जिन अर्थों में ब्राह्मण जन इनका प्रयोग करते थे? यदि हां, तो क्या ‘आत्मा’ के अस्तित्व को अस्वीकार करने तथा ‘कर्म’ और ‘पुनर्जन्म’ के सिद्धान्त को मान्य करने में भयानक असंगति नहीं है?’’74
आंबेडकर ने कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है, पर उसे कर्म के हिन्दू सिद्धान्त से अलग रखा है। उनका कहना है कि कर्म का बौद्ध सिद्धान्त और कर्म का हिन्दू सिद्धान्त न एक है और न एक हो सकता है। उन्होंने इस शाब्दिक मायाजाल से सावधान रहने की आवश्यकता पर जोर दिया है। उनके अनुसार, कर्म का हिन्दू सिद्धान्त शरीर से पृथक एक आत्मा पर निर्भर करता है, शरीर मरता है तो आत्मा उसके साथ नहीं मरती। आत्मा फुर्र से उड़ जाती है। किन्तु, बुद्ध के कर्म के सिद्धान्त का सम्बन्ध मात्र कर्म से है और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से।75
आबेडकर ने बुद्ध के पुनर्जन्म के सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की है, ‘‘बुद्ध के अनुसार चार भौतिक पदार्थ हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। जब शरीर का मरण होता है, तो क्या वे भी मर जाते हैं? बुद्ध ने कहा कि ‘नहीं’। आकाश में जो समान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप से विद्यमान हैं, वे उनमें मिल जाते हैं। इस विद्यमान राशि में से जब इन चारों भौतिक पदार्थों का पुन£मलन होता है, तो पुनर्जन्म होता है।’’76 आगे आंबेडकर इस प्रश्न पर विचार करते हुए कि क्या मृत आदमी का ही पुनर्जन्म होता है, लिखते हैं, ‘‘यदि मृत आदमी के देह के सभी भौतिक अंश पुनः नये सिरे से मिलकर एक नये शरीर का निर्माण कर सकें, तभी यह मानना सम्भव है कि उसी आदमी का पुनर्जन्म हुआ। यदि भिन्न-भिन्न मृत शरीरों के अंशों के मेल से एक नया शरीर बना, तो यह पुनर्जन्म तो हुआ, लेकिन यह उसी आदमी का पुनर्जन्म नहीं हुआ।’’77 इस प्रकार, आंबेडकर ने बुद्ध के कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को खारिज नहीं किया, वरन् उसकी वैज्ञानिक व्याख्या की, अलौकिक व्याख्या से बचते हुए, जो त्रिपिटक केे ग्रन्थों में मिलती है।
राहुल और आंबेडकर की वैचारिक असमानताएं इस कारण से हैं कि राहुल ने एक माक्र्सवादी आलोचक के रूप में धर्म की व्याख्या की है। वे इतिहास के आलोचक थे और भारत में समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करने के स्वप्न द्रष्टा। किन्तु, डा. आंबेडकर इतिहास के आलोचक के साथ-साथ इतिहास के निर्माता भी थे। भारत में बौद्धधर्म का पुनरुद्धार और बौद्ध समाज का निर्माण उनकी सबसे बड़ी चिन्ता थी। बीसवीं सदी की वैज्ञानिक विचारधारा और माक्र्सवादी आ£थक व्याख्याओं की चुनौतियाँ भी उनके सामने थीं। राहुल धर्म को मनुष्य के लिये अनावश्यक कह सकते थे, पर आंबेडकर, जो बौद्धधर्म के पुनरुद्धारक होने जा रहे थे, धर्म को अनावश्यक कैसे ठहरा सकते थे? उन्होंने धर्म की भी धर्म, अधर्म और सद्धर्म के रूपों में व्याख्या की78 और बुद्ध वचनों को भी, जो विकृत हो चुके थे, झाड़-पोंछ कर तर्कसंगत और वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। वे एक विशाल मानव समुदाय को अधा£मक बनाये जाने के पक्ष में नहीं जा सकते थे। नैतिक दृष्टि से भी किसी समुदाय का धर्म-विमुख होना उनके लिये अनुचित था। वे बौद्धधर्म को एक क्रान्ति मानते थे। उनके अनुसार, ‘‘यह उतनी ही महान क्रान्ति थी, जितनी कि फ्रान्स की क्रान्ति थी। यद्यपि यह धा£मक क्रान्ति के रूप में आरम्भ हुई, तथापि यह धा£मक क्रान्ति से बढ़कर थी। यह सामाजिक और राजनैतिक क्रान्ति बन गयी थी।’’79 वे लिखते हैं कि इस क्रान्ति के महत्व को तभी समझा जा सकता है, जब क्रान्ति से पहले के भारतीय समाज की भयानक स्थिति और सामाजिक, धा£मक और आध्यात्मिक रूप से निकृष्ट, विलासिता में डूबे हुए बुद्धकालीन आर्य समुदाय का चित्र आपके सामने होगा।80
सन्दर्भ
 1. अंधकार में ज्योति (अनागरिक धर्मपाल का जीवनवृत्त तथा उपदेश), लेखक-महास्थविर  संघरक्षित, नौरफोक (इंगलैण्ड), अनुवादक- कँवल भारती, प्रकाशक-त्रिरत्न ग्रन्थमाला, पुने, संस्करण: 1991 (प्रथम)
 2. मेरी जीवन यात्रा, प्रथम खण्ड, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1946, पृष्ठ 258
 3. वही, पृष्ठ 267
 4. वही, पृष्ठ 364
 5. वही, द्वितीय खण्ड, संस्करण 1950, पृष्ठ 7-8
 6. वही, पृष्ठ 8-9
 7. वही, पृष्ठ 106-07
 8. दर्शन-दिग्दर्शन- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1998, पृष्ठ 393
 9. जिनका मैं कृतज्ञ- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-1957, पृष्ठ 128
10. वही, पृष्ठ 127
11. मेरी जीवन यात्रा, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 155-56
12. वही, पृष्ठ 156
13. दर्शन-दिग्दर्शन, पृष्ठ 393
14. वही, पृष्ठ 394
15. वही
16. वही
17. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-14, डा. आंबेडकर प्रतिष्ठान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, संस्करण  जून 1998, पृष्ठ-1 (प्रस्तावना)
18. वही, खण्ड-10, संस्करण 1996, पृष्ठ 37
19 वही, पृष्ठ 66
20. सोर्स मेटेरियल आन डा. बाबा साहेब आंबेडकर एण्ड दि मूवमेन्ट आफ दि अनटचेबुल्स, वाल्यूम-1, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, बम्बई, संस्करण प्रथम, दिसम्बर 6, 1982, पृष्ठ  135
21. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-10, पृष्ठ 173
22. वही
23. सोर्स मेटेरियल...... पृष्ठ 135
24. वही, पृष्ठ 136
25. वही, पृष्ठ 276-77
26. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-9, संस्करण द्वितीय 1998, पृष्ठ 144
27. डा. बाबा साहेब आंबेडकर- राइटिंगस एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-12, एजूकेशन डिपार्टमेंन्ट,  महाराष्ट्र गर्वनमंेन्ट, संस्करण पहला 1993, पृष्ठ 115
28. डा. आंबेडकर वाङमय, खण्ड-10, पृष्ठ 66
29. वही 30. वही
31. वही, खण्ड-9, पृष्ठ 156
32. धनंजय कीर, आंबेडकरः लाइफ एण्ड मिशन, पापुलर प्रकाशन, बम्बई, दूसरा संस्करण, 1961, पृष्ठ 58
33. वही, पृष्ठ 304 34. वही, पृष्ठ 499
35. वही, पृष्ठ 92
36. सोर्स मेटेरियल... पृष्ठ 139
37. वही, पृष्ठ 141-42
38. वही, पृष्ठ 422
39. वही, पृष्ठ 212
40. वही 41. वही, पृष्ठ 213
42. वही, पृष्ठ 214
43. वही 44. वही
45. वही
46. वही, पृष्ठ 366
47. वही
48. वही
49. वही, पृष्ठ 371
50. वही, पृष्ठ 410
51. मेरी जीवन यात्रा, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 303
52. कृपया देखें, राहुल सांकृत्यायन की ‘बुद्धचर्या’ (भारतीय बौद्ध समिति, लखनऊ, संस्करण 1995) पृष्ठ 1-2, एवं डा. आंबेडकर की पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’ (समता प्रकाशन, नागपुर, संस्करण उल्लेख नहीं) पृष्ठ 2-3
53. दर्शन-दिग्दर्शन, पृष्ठ 386 और ‘बुद्धचर्या’ भी देखें, पृष्ठ 6 से 12
54. बुद्ध और उनका धम्म, परिचय
55. वही, देखिए भदन्त आनन्द कौसात्यायन ;अनुवादकद्ध का नम्र निवेदन (पृष्ठ संख्या उल्लेख  नहीं)
56. वही
57. वही, यह भी देखें, ‘सुत्तनिपात’, मूलपाली तथा हिन्दी अनुवाद, भिक्षु धमरत्न, प्रकाशक  महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, संस्करण प्रथम 1951, पृष्ठ 201
58. वही, पृष्ठ 14-17
59. बुद्धचर्या, पृष्ठ 9-10
60. बुद्ध और उनका धम्म, पृष्ठ 17-18
61. वही, पृष्ठ 19-20
62. कृपया देखें, मेरी पुस्तक ‘धम्मचक्कपवत्तन सुत्त’ (मूल, अनुवाद एवं व्याख्या), बोधिसत्त्व  प्रकाशन, रामपुर, दूसरा संस्करण 1997
63. दर्शन-दिग्दर्शन, पृष्ठ 389 (बुद्धचर्या, पृष्ठ 22)
64. वही, पृष्ठ 390 (बुद्धचर्या, पृष्ठ 23)
65. वही, पृष्ठ 394
66. वही
67. बुद्ध और उनका धम्म, नम्र निवेदन, पहला पृष्ठ
68. वही, परिचय
69. वही
70. वही
71. दर्शन-दिग्दर्शन, पृष्ठ 415
72. वही
73. वही, पृष्ठ 415-416
74. बुद्ध और उनका धम्म, नम्र निवेदन, दूसरा पृष्ठ
75. वही, पृष्ठ 160
76. वही, पृष्ठ 156
77. वही, पृष्ठ 157
78. वही, पृष्ठ 107 से 147 तक
79. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-7, पृष्ठ 17


80. वही
                                                                  दूसरा अध्याय 
                                               राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर
                                                            (सन्दर्भ- आर्य सिद्धान्त)


दलित नव जागरण के समय में जो दलितों को रटया गया था, वह था यह इतिहासबोध कि हमलावर आर्यों ने भारत में आकर यहां के मूल निवासियों पर धावा बोला और उन्हें हरा कर अपने अधीन कर दास बना लिया, वही दास आज के शूद्र और अछूत हैं। दलितों में, उस समय सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले राहुल सांकृत्यायन की किताबों- ‘ऋग्वेदिक आर्य’ और खासकर ‘बोल्गा से गंगा’ की कहानियों ने इस धारणा को और भी मजबूत किया। महाराष्ट्र में दलित आन्दोलन के प्रर्वत्तक महात्मा ज्योतिराव फुले 19वीं शताब्दी में ही इस धारणा को अपनी पुस्तक ‘गुलामगीरी’ में स्थापित कर चुके थे। इसलिये समूचे दलित आन्दोलन ने इसी धारणा को अपना ऐतिहासिक आधार बनाया। इस धारणा को डा. आंबेडकर की पुस्तक ‘शूद्र कौन’ भी खंडित नहीं कर सकी, जो दलित नवजागरण के दौरान ही चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु के प्रकाशन संस्थान (बहुजन कल्याण प्रकाशन) से 1946 में ही छप कर आ चुकी थी। उसका दूसरा संस्करण 1968 में प्रकाशित हुआ था, जिसकी प्रति इन पंक्तियों के लेखक के पास सुरक्षित है।1 चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु की 1937 में प्रकाशित पुस्तक ‘‘भारत के आदि निवासियों की सभ्यता’’ के भी 1969 तक छह संस्करण प्रकाशित हो चुके थे और बोधानन्द महास्थिविर का ग्रन्थ ‘‘मूल भारतवासी और आर्य’’ (1930) अनुपलब्ध होने के बावजूद चर्चा में था। इन ग्रन्थों ने दलित वर्गों के मानस पर यह छाप छोड़ने में अमिट प्रभाव डाला था कि भारत के करोड़ों शूद्र और अछूत भारत के उन मूल निवासियों की सन्तान हैं, जो कि प्रागैतिहासिक काल में इस देश में स्वच्छन्दता से निवास करते थे और इस भूमि के स्वामी थे।
इस विषय पर राहुल सांकृत्यायन का क्या मत था, इसे हम उनकी 1956 में प्रकाशित पुस्तक ‘ऋग्वेदिक आर्य’ में देखने की कोशिश करते हैं। उनके अनुसार, यह मानना ही होगा कि आर्य बाहर से आये। क्यों? उनका उत्तर है- ‘‘आर्य भारत में बाहर से आये, यदि यह न माना जाय, तो आर्यों की भाषा पश्चिम की जिन भाषा वालों से अपना एक पारिवारिक सम्बन्ध बतलाती है, उन्हें भी भारत से गया मानना होगा। इसके कारण और अनेक समस्याएँ उठ खड़ी होगीं, जिनका समाधान अति कठिन है।’’2 स्पष्ट है कि उनके अनुसार यह भाषा की समस्या है, जिसके कारण आर्य भारतीय नहीं हैं। आर्य भारत में कब आये? वे लिखते हैं, ‘‘आर्यों के प्रवेश के समय पर ध्यान देने से आर्यों का भारत में प्रवेश ई.पू. 1500 से पहले नहीं मालूम होता।’’3 आर्य कहां से भारत में आये? उत्तर है, ‘‘भारतीय आर्य हिन्दी-यूरोपीय वंश की पूर्वी या शतम्-शाखा के अन्तर्गत आते हैं, जिसमें ही रूसी आदि स्लाब और ईरानी भी सम्मिलित हैं। ईरानी आर्य अपने मूल स्थान ‘आर्याना बेइजा’ का स्मरण रखते थे, पर भारतीय आर्य उसे भूल गये थे, यह ऋग्वेद के मौन-धारण से मालूम होता है। इसमें यह भी कारण हो सकता है कि उनका प्रसार बीच के स्थानों को छोड़कर नहीं हुआ,, इसलिये उन्हें मूल स्थान से निर्वासित होने का ख्याल नहीं हो सकता था। आखिर ऋग्वेदिक आर्यों के सबसे पश्चिम में रहने वाले पख्त, भलान आदि जन भारत के पश्चिमी द्वार खैबर और बोलन के काफी पीछे तक बसे हुए थे। उनके भी पश्चिम आर्य जन रहे होंगे, पर प्रकरण में न आ सकने के कारण ऋग्वेद ऋषि उनका नाम-स्मरण नहीं कर सके।’’4 लगता है, राहुल जी ने अटकल लगायी है और सब बातों को छोड़कर केवल भाषा को आधार बनाया है।
आर्यों का संघर्ष भारत के मूल निवासियों से हुआ। यह भी राहुल ने स्पष्ट किया है, ‘‘आर्यों का सप्त सिन्धु में छा जाना शान्तिपूर्वक नहीं हुआ। अपने से अधिक सभ्य तथा नागरिक होने से अपेक्षाकृत मृदुल-प्रकृति वाले प्रतिद्वन्द्वियों से उनका खूनी संघर्ष 1500 ई.पू. के आस-पास हुआ था।’’5 वे आगे लिखते हैं, ‘‘मोहन-जोदड़ो, हड़प्पा तथा ऐसे ही कितने और नगरों के संहार के बाद सप्त सिन्धु की विजित भूमि को पशुपाल आर्य जनों ने आपस में बाँट कर उसे गोचर भूमि में परिणत कर दिया। बहुत से नगर वीरान हो गये। गांवों के भी बहुत से लोग पूर्व और दक्षिण की ओर भाग गये। जो रह गये, उन्हें विजेताओं ने दास या कमकर बना लिया।’’6
आर्यों का संघर्ष भारत की किन जातियों से हुआ? राहुल जी लिखते हैं, ‘‘ऋग्वेदिक आर्यों के काल (ई.पू. 1200-1000) में भारत में चार जातियाँ मुख्यतः बसती थीं, जिनमें कोल या कोलारी (निषाद, आस्ट्रिक) सप्त सिन्धु से बहुत दूर रहते थे, इसलिये उनसे उस समय आर्यों का कोई सम्बन्ध नहीं था। आर्यों के घनिष्ठ सम्पर्क और संघर्ष में आने वाले (1) मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्य जाति ‘द्रविड़’ और (2) कश्मीर से आसाम और आगे के पहाड़ों तथा तराई में बसने वाली जाति ‘किरया किरात’ (मोन्-ख्मेर) मुख्य थीं। आते ही आर्यों को नागरिक द्रविड़ों से पहले भुगतना पड़ा। फिर सप्त सिन्धु में छा जाने के बाद जब वह हिमालय की तराई और उसके भीतर घुसने लगे, तो उनका संघर्ष किरों से हुआ। द्रविड़ और किरात दोनों में ऋग्वेद ने कोई भेद नहीं किया और दोनों ही को कृष्णचर्म, कृष्णयोनि या कृष्णवर्ण (काले रंग वाला) कहा है।’’7
इस युद्ध में जो स्त्री-पुरुष पराजित हुए, राहुल के मतानुसार, उनमें से ‘‘बहुतों को विजेता दास-दासी बनाकर काम लेते थे।’’8 वे आगे लिखते हैं, ‘‘शूद्र से दास वर्ण का मतलब है, जो कि पहले आर्यों के प्रतिद्वन्द्वी और पीछे उनके शासित या दास बन गये।’’9 उनके अनुसार, ‘‘उस वक्त जो भी युद्धबन्दी हाथ आये होंगे, वह दास-दासी बन गये होंगे, इसमें सन्देह नहीं।’’10 इन दास-दासी शूद्रों के साथ किस तरह का व्यवहार आर्यों ने किया, इसका उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘आ£थक तौर से पराजितों का भीषण शोषण तो होता ही था, सामाजिक तौर से भी उन्हें बहुत हीन समझा जाता था। गुत्समद ने मान लिया था कि देवताओं ने ही उन्हें अधम (नीच) वर्ण का बना दिया है।’’11
जैसा कि कहा जा चुका है, पराजित लोग कृष्ण (काले) वर्ण (रंग) के थे और स्पष्ट है कि आर्य श्वेत (गोर) थे। अतः शूद्र काले रंग के थे, जिसके कारण उनके साथ भेदभाव किया गया। राहुल के अनुसार, ‘‘आर्यों को रक्त-सम्मिश्रण का डर कितना था, इसका अन्दाज हमें अमेरिका के नीग्र्रो और श्वेतांगों से लग सकता है। आर्यों ने वर्ण भेद की खाई को सुदृढ़ रखने की कोशिश की। यद्यपि वर्ण-रंग का इस तरह का भेदभाव हमारी जातियों में आज बिल्कुल नहीं मिलता। ब्राह्मण भी कोयले से काले मिलते हैं, और शूद्र या अछूत अच्छे खासे गोरे।’’12
आगे राहुल जी ने एक बड़े मजे का तर्क इस मामले में दिया है कि यवन, शक और हूण अछूत क्यों नहीं बने, जबकि वे भी बाहर से हमलावर के रूप में आये थे? राहुल लिखते हैं, ‘‘उनके प्रति आरम्भ में कुछ भेदभाव जरूर रक्खा गया, लेकिन रंग का सवाल नहीं उठ सकता था, क्योंकि नवान्तुक वर्ण-सम्पत्ति में आदिम आर्यों जैसे थे, जिनके रूप, रंग, नख-शिख को हमारे यहाँ बराबर सौन्दर्य की कसौटी माना जाता रहा। इसीलिये यवन-शक उच्च वर्ण के लोगों में मिल गये और उन्हें अछूत या सम्पत्तिहीन नहीं बनना पड़ा।’’13
सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता की स्थिति पर राहुल जी की टिप्पणी बेहद रोचक है। वे लिखते हैं, ‘‘तीव्र वर्ण-भेद के ख्याल से आर्य अपने दास-दासियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने के विरोधी थे। पर, दास-दासियों के श्रम का वह कैसे त्याज्य कर सकते थे? दक्षिणी अफ्रीका के गोरे भी कालों के श्रम से लाभ उठाने से बाज नहीं आते। सिन्धु-उपत्यकावासी भौतिक संस्कृति में आर्यों से बहुत आगे बढ़े हुए थे। मोहनजोदड़ो जैसे ताम्र युग के भव्य नगर के निर्माण करने वाले उनके शिल्पी, अपने कला-कौशल तथा शिल्प से आर्यों के लिये लाभदायक थे। इस लाभ से वह अपने को वंचित नहीं करना चाहते थे। कपड़ा बुनना, चिकित्सा करना, हथियार बनाना आदि कुछ शिल्प आर्यों को भारत में आने से पहले ही मालूम थे। उन्होंने सिन्धु-उपत्यकावासियों के अधिक विकसित शिल्प भी कुछ सीखे। उससे भी अधिक उन्हीं द्वारा काम करवाकर लाभ उठाया, पर खान-पान की जो छूतछात पीछे पैदा हुई, उसका अस्तित्व उस काल में था, यह कहना मुश्किल है। जहाँ तक उत्तर भारत का सम्बन्ध है, ‘शूद्राः संस्कर्तारः’ (शूद्र पाचक हैं) बराबर माना जाता रहा। रोटी-पानी में शूद्रों से नहीं, बल्कि अतिशूद्रों से भेद बरता जाता रहा, जिसका कारण वर्ण नहीं, बल्कि अधिक गन्दे समझे जाने वाले काम थे।’’14
जो सिन्धु-उपत्यकावासी (मूल निवासी) शिल्प और कला-कौशल में आर्यों से बढ़-चढ़कर थे, वे असभ्य और अकुशल आर्यों से पराजित होकर दास कैसे हो गये, इस प्रश्न पर राहुल जी ने कोई विचार नहीं किया। देखते हैं कि इस विषय पर डा. आंबेडकर के विचार क्या हैं?

2
आंबेडकर का मत है कि ब्राह्मण शास्त्रकारों से यह पता नहीं चलता कि शूद्र कौन थे और चैथा वर्ण कैसे बना? उनके अनुसार यह भ्रम पाश्चात्य विद्वानों ने फैलाया है कि आर्य बाहर से आये और उन्होंने यहां के मूल लोगों को पराजित कर शूद्र बनाया। वे इस मत का जबरदस्त खण्डन करते हैं। उनका कहना है कि आर्य एक भाषा है। आर्य शब्द का सम्बन्ध न रक्त से है, न शारीरिक ढाँचे से, न बालों से और न कपाल से है। जो आर्य भाषा बोलते हैं, वे ही आर्य हैं।15
वे ऋग्वेद के हवाले से लिखते हैं कि ‘अर्य’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में 88 बार हुआ है। इसका प्रयोग चार विभिन्न अर्थों में किया गया है, जो ये हैं- (1) शत्रु, (2) संभ्रान्त नागरिक, (3) भारत देश का नाम, और (4) स्वामी, वैश्य अथवा नागरिक। इसी तरह ‘आर्य’ शब्द 31 बार आया है, जिसका अर्थ कहीं भी जाति नहीं है।16 वे परिशिष्ट में इन दोनों शब्दों की सम्पूर्ण सूची भी प्रस्तुत करते हैं।18
क्या आर्य बाहर से आये? वे भारत में कहाँ से आये? अर्थात् उनका मूल स्थान कहाँ था? इस सम्बन्ध में विद्वानों ने बहुत तरह के विचार व्यक्त किये हैं। आंबेडकर कहते हैं कि वे सभी विचार भ्रामक हैं। तिलक के अनुसार आर्य आर्कटिक क्षेत्र के रहने वाले थे। पर, आंबेडकर ने यह कहकर इस मत को खारिज कर दिया कि आर्कटिक क्षेत्र में घोड़ा विद्यमान नहीं था, जो आर्यों का प्रिय प्राणी था।19
आंबेडकर लिखते हैं कि वैदिक साहित्य से पता नहीं चलता कि आर्य बाहर से आये। उन्होंने ऋग्वेद के मन्त्र 75 का उल्लेख किया है, जिसमें सात नदियों का प्रसंग महत्वपूर्ण है। वहां नदियों का सम्बोधन ‘मेरी गंगा’, ‘मेरी जमुना’ और ‘मेरी सरस्वती’ कहकर किया गया है। आंबेडकर सवाल करते हैं कि कोई भी विदेशी ऐसा सम्बोधन क्यांे करेगा? उनके अनुसार, ऐसा सम्बोधन वही कर सकता है, जिसका इनसे निकट का भावात्मक सम्बन्ध हो।20
आंबेडकर आगे कहते हैं कि वेदों में दासों, दस्युओं और आर्यों के  बीच किसी बड़े युद्ध का वर्णन नहीं मिलता, केवल छोटी-छोटी झड़पों का उल्लेख मिलता है। यह जय-पराजय का प्रमाण नहीं हो सकता। उनके अनुसार, ऋग्वेद के मन्त्रों (6-33-3, 7-83-1, 5-51-9 तथा 10-102-3) में स्पष्ट कहा गया है कि आर्यों के साथ दास और दस्युओं ने मिलकर संयुक्त रूप से शत्रु से युद्ध किया। वे कहते हैं कि संघर्ष की स्थिति के बावजूद दासों, दस्युओं और आर्यों में शान्ति बनाये रखने के लिये सम्मान जनक समझौते भी हुए हैं। वे आगे लिखते हैं कि ऋग्वेद के अनुसार, यदि संघर्ष था भी, तो वह जाति के आधार पर नहीं, धर्म के आधार पर था। ऋग्वेद के मन्त्र (10-22-8) में कहा गया है कि हम दस्यु जातियों के बीच रहते हैं। ये लोग न तो यज्ञ करते हैं और न किसी की पूजा। उनके संस्कार-अनुष्ठान भी भिन्न हैं। अतः वे मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं। हे शत्रु-हंता! इन दस्युओं का नाश करो।21 अतः आंबेडकर कहते हैं कि ऋग्वेद के आधार पर इस मत का खण्डन हो जाता है कि आर्य बाहर से आये और उन्होंने यहां के मूल निवासियों को जीता।22
आगे आंबेडकर ने इस प्रश्न पर विचार किया है कि क्या दास या दस्यु नाम की कोई जाति थी? जो लोग आर्यों का दासों और दस्युओं से संघर्ष मानते हैं, उनका मत है कि ऋग्वेद में ‘मृध्रावक’ और ‘अनास’ दस्युओं के गुण बताये गये हैं और ‘दास’ को कृष्ण-वर्ण कहा गया है। आंबेडकर कहते हैं कि ऋग्वेद में ‘मृध्रावक’ शब्द चार मन्त्रांे (1-14-2, 5-32-8, 7-6-3, तथा 7-18-3) में आया है, जिसका अर्थ है, वह व्यक्ति जो गंवार है और अपरिष्कृत भाषा बोलता है। वे पूछते हैं कि क्या भाषा का गंवारूपन या अपरिष्कृत होना जाति-भिन्नता का साक्ष्य माना जा सकता है? वे आगे कहते हैं कि ‘अनास’ शब्द ऋग्वेद के मन्त्र (5-29-10) में आया है। सायण ने इसका अर्थ बिना मुंह वाला अर्थात् कटुभाषी किया है, जबकि मैक्समूलर ने इसे बिना नासिका वाला बताया है। इनमें सही अर्थ कौन सा है? आंबेडकर कहते हैं कि दरअसल ये दो अर्थ दो तरह से पढ़ने के कारण हैं। सायण ने इस शब्द को ‘अन-असा’ पढ़ा है, जबकि मैक्समूलर ने ‘अन्नासा’। वे कहते हैं कि सायण का अर्थ सही है, क्योंकि दस्युओं को कहीं भी बिना मुंह या बिना नाक वाला नहीं बताया गया है। उनके अनुसार यह ‘मृध्रावक’ का ही पर्याय है। इससे यह तो साबित होता है कि दस्यु कटुभाषी थे, पर उनका एक भिन्न जाति होना साबित नहीं होता।23
क्या दास कृष्ण वर्ण के थे? आंबेडकर लिखते हैं कि ऋग्वेद (मन्त्र 6-47-21) में दासों को कृष्ण योनि का बतलाया गया है। पर, यह स्पष्ट नहीं होता कि यह शब्द लाक्षणिक रूप में प्रयोग हुआ है या शाब्दिक अर्थ में? यह भी पता नहीं चलता कि यह यथार्थ है या घृणा का प्रतीक। जब तक इन प्रश्नों का उत्तर न मिल जाय, तब तक, वे कहते हैं, यह मत स्वीकार करना सम्भव नहीं कि दासों को काले रंग की जाति का माना जाय।24 इन प्रश्नों के समाधान के लिये वे ऋग्वेद के तीन मन्त्रों का उल्लेख करते हैं, जो इस प्रकार हैं-
1. ऋग्वेद (6-22-10)- ‘‘हे वज्रि, तूने दासों को आर्य बनाया है,  अपनी शक्ति से बुरे को अच्छा बनाया है। हमें भी वही शक्ति दो,  जिनसे हम शत्रुओं पर विजय पा सकें।’’
2. ऋग्वेद (10-49-3)- ‘‘इन्द्र कहता है, मैंने दस्युओं को आर्य  सम्बोधन से वंचित कर दिया है।’’
3. ऋग्वेद (1-15-108)- ‘‘हे इन्द्र, यह मालूम करो कि आर्य कौन हैं  और दस्यु कौन हैं? इन दोनों को पृथक करो।’’
आंबेडकर कहते हैं कि इन मन्त्रों से यह स्थापित होता है कि आर्यों और दासों तथा दस्युओं के बीच न जातीय भिन्नता थी और न शारीरिक। दास और दस्यु आर्य कहे जाते थे, इसीलिये इन्द्र से कहा गया कि उन्हंे आर्यों से पृथक किया जाय।25
आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘आर्य जाति का सिद्धान्त अनुमान के सिवा कुछ नहीं है। यह डा. बोप के दार्शनिक विचारों पर आधारित है, जो उन्होंने 1835 ई. में प्रकाशित अपनी युगान्तरकारी पुस्तक ‘कम्पैरेटिव ग्रामर’ में प्रकट किये हैं। इस पुस्तक में डा. बोप ने लिखा है कि यूरोप की अधिकांश और एशिया की कुछ भाषाओं के पूर्वज एक ही थे। जिन भाषाओं की ओर डा. बोप ने संकेत किया है, वे भारत-जर्मन भाषाएँ कहलाती हैं। इन्हें समुच्चय रूप से आर्य भाषा कहा गया है, क्योंकि वैदिक भाषा आर्यों का उल्लेख करती है और वह भारत-जर्मन भाषा परिवार से सम्बद्ध है। यही मुख्य सिद्धान्त आर्य जाति पर लागू है।’’26
वे आगे कहते हैं कि इससे लोगों ने दो अनुमान लगाये- (1) जातियों की एकता और (2) यह प्रजाति आर्य जाति है। इन लोगों ने यह तर्क दिया कि यदि भाषाओं का उद्गम समान आनुवंशिक बोलियाँ हैं, तो ऐसी जाति रही होगी, जिसकी वह मातृभाषा रही हो और वह आर्य जाति की आर्य भाषा रही होगी। वे कहते हैं कि इसी एक अनुमान से समान मूल स्थान का अनुमान भी गढ़ा गया।27 लेकिन, सबसे नया अनुमान और अनुसन्धान आर्यों के आक्रमण का सिद्धान्त है, जिसको खोजने की जरूरत, डा. आंबेडकर के अनुसार, पश्चिमी विद्वानों को इस कथन को सिद्ध करने के लिये पड़ी कि ‘इंडो-जर्मन’ ही मूल आर्यों के मूल प्रतिनिधि हैं। इनका मूल स्थान यूरोप बताया गया है। आंबेडकर कहते हैं कि केवल यह बताने के लिये कि आर्य भाषा भारत कैसे पहुँची, भारत में आर्यों के आगमन और आक्रमण के सिद्धान्त को गढ़ा गया।28
आंबेडकर के अनुसार पश्चिमी विद्वानों ने तीसरी कल्पना यह की कि आर्य एक श्रेष्ठ जाति है। इस मत का आधार यह विश्वास है कि आर्य यूरोपीय जाति के थे और इस नाते वे एशियाई जातियों से श्रेष्ठ हंै। श्रेष्ठता की इस परिकल्पना को यथार्थ सिद्ध करने के लिये ही इस कहानी को गढ़ने की आवश्यकता पड़ी, क्योंकि उन्हें पता था कि आक्रमण की बात कहने के सिवा आर्य जाति को श्रेष्ठ बताने का और तरीका नहीं है।29
आंबेडकर आगे कहते हैं कि योरोपीय विद्वानों ने यह तर्क भी गढ़ा कि योरोपीय जातियाँ गौर वर्ण होती हैं। चूंकि आर्य योरोपीय थे, इसलिये वे गोरे भी थे। वे एशियाई जातियों से इसलिये घृणा करते हैं, क्योंकि वे काले रंग की होती हैं। चूंकि ये योरोपीय विद्वान रंगभेदी थे, इसलिये उनके अनुसार वर्णव्यवस्था रंगभेद का पर्याय थी।30 आंबेडकर ने इन सारी परिकल्पनाओं को निराधार और हास्यास्पद अटकलों पर आधारित बताया है। वे कहते हैं कि यदि वर्णव्यवस्था रंगभेद का पर्याय होती, तो जातीय भेदभाव का आधार रंग होता, न कि जाति और चारों वर्णों के चार ही रंग होने चाहिए थे।31
आंबेडकर के मतानुसार आर्य जाति की उत्पत्ति का सिद्धान्त एक पुरानी भ्रान्ति है, जिसका अन्त बहुत पहले हो जाना चाहिए था, पर ब्राह्मणों ने इसका समर्थन करके इसे जन साधारण में प्रचलित कर दिया। वे कहते हैं कि ब्राह्मणों ने दो कारणों से इसका समर्थन किया। पहला इसलिये कि ब्राह्मण दो राष्ट्र के सिद्धान्त में विश्वास रखता है। वह स्वयं को आर्यों का प्रतिनिधि मानता है और शेष हिन्दुओं को अनार्य जातियों की सन्तान कहने से उसके श्रेष्ठ होने के अहम की पू£त होती है। वह आर्यों के बाहर से आने तथा अनार्य जातियों को विजित करने के सिद्धान्त का समर्थन अब्राह्मणों पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने के मकसद से करता है। दूसरा कारण यह है कि योरोपीय विद्वानों के वर्ण का अर्थ रंग को ब्राह्मणों ने आर्य सिद्धान्त को जीवित रखने के लिये माना, क्योंकि वर्णभेद ही आर्य सिद्धान्त का मूलाधार है।32
क्या आर्य वस्तव में गौर वर्ण के थे और वर्णभेद के समर्थक थे? आंबेडकर ने ऋग्वेद के हवाले से इसका खण्डन किया है। वे लिखते हैं कि ऋग्वेद के मन्त्र (1-117-8) में प्रसंग है कि आश्विन ने श्यामा और रूसति से विवाह किया। श्यामा काली थी और रूसति गोरी। एक अन्य मन्त्र (1-117-5) में आश्विन ही स्तुति कुन्दनवर्णा वन्दना के उद्धार के लिये की गयी है। किन्तु ऋग्वेद के ही अन्य मन्त्र (9-3-9) में एक आर्य ने पिशांक रक्ताभ ताम्रवर्ण वाले गुणी पुत्र के लिये देवताओं की आराधना की है। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों के सृष्टा ऋषि दीर्घत्तमा थे, जो श्यामवर्ण के थे। मन्त्र 10-31-11 के अनुसार, आर्य ऋषि कण्व भी श्याम वर्ण के थे। आंबेडकर लिखते हैं कि इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि आर्य न तो गोरे वर्ण के थे और न वर्णभेद के समर्थक थे।33
आंबेडकर ऋग्वेद और अन्य शास्त्रांे के अध्ययन के हवाले से स्पष्ट करते हैं कि आर्यों की दो जनजातियाँ थीं, न कि एक। योरोपीय विद्वान जिस एक आर्य प्रजाति की बात करते हैं, ऋग्वेद में उसका प्रमाण नहीं मिलता। ऋग्वेद में दो भिन्न आर्य जातियों का वर्णन है।34 वे आगे कहते हैं कि दास, दस्यु और आर्य तीनों आर्य जाति के हैं और तीनों भारतीय हैं।35
आंबेडकर की यह स्थापना है कि शूद्र आर्य थे और वे क्षत्रिय थे। वे क्षत्रियों में इतने उत्तम और महत्वपूर्ण वर्ण के थे कि प्रचीन आर्यों के समुदाय में अनेक शूद्र तेजस्वी और बलशाली राजा थे। उन्होंने मैक्समूलर के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए विस्तार से लिखा है कि ऋग्वेद में पुरुष सूक्त एक क्षेपक है, जो चार वर्ण की बात करता है। उनके अनुसार वर्ण तीन थे और शूद्र दूसरे वर्ण क्षत्रिय से सम्बन्धित थे।36 चैथा वर्ण कब बना और शूद्र उसमें कब ढकेले गये? इस पर आंबेडकर का मत है कि क्षत्रिय और ब्राह्मणों के संघर्ष के कारण चैथा वर्ण शूद्र बना। ब्राह्मणों ने उनका उपनयन बन्द कर उन्हें शूद्र बनाया। ब्राह्मणों की यह प्रतिक्रिया शूद्र राजाओं के द्वारा उनके साथ किये गये अत्याचार, उत्पीड़न और अपमान के कारण थी, जिसका आशय था प्रतिशोध की भावना।37
प्रश्न उठता है कि शूद्रों ने इस अधोपतन को कैसे सहन किया? इसका उत्तर आंबेडकर यह देते हैं कि उनकी संख्या कम थी और वे ब्राह्मणों द्वारा अपने विरुद्ध गठित संयुक्त मोर्चे का विरोध करने में असमर्थ थे।38
अपने निष्कर्ष में आंबेडकर ने एक बात बड़ी महत्वपूर्ण यह कही है क आर्य शूद्र और आज के हिन्दू शूद्र एक नहीं हैं। धर्म सूत्रकारों ने सच्छूद्र (सभ्य शूद्र) और असच्छूद्र (असभ्य शूद्र) के रूप में शूद्र में अन्तर किया है। उनके अनुसार सभ्य शूद्र निर्वासित शूद्र थे, जो गांव के भीतर रहते थे और असभ्य शूद्र अनिर्वासित शूद्र थे, जो गांव से बाहर रहते थे। आर्य शूद्र एक जाति (वंश या कुल) का नाम था, जबकि हिन्दू समाज में ‘शूद्र’ शब्द तथाकथित नीच अथवा असभ्य मानव वर्ग के लिये प्रयुक्त गुणवाचक संज्ञा है।39

3
इस प्रकार हम देखते हैं कि आर्य जाति के सिद्धान्त को लेकर राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर के विचार परस्पर विरोधी हैं। यहां राहुल योरोपीय विद्वानों का समर्थन करते हुए आर्यों को योरोपीय वंश का मानते हैं, वहीं आंबेडकर आर्यों को भारतीय जनजाति का मानते हुए योरोपीय सिद्धान्त को सिरे से खारिज कर देते हैं। राहुल आर्य शूद्र और हिन्दू शूद्र को रेखांकित नहीं कर पाते हैं। वे दोनों को एक ही मानते हैं। पर, आंबेडकर की दृष्टि में आर्य शूद्र और हिन्दू शूद्र अलग-अलग हैं। राहुल ने दास-दस्युओं को अनार्य और आर्यों का दास माना है, जबकि आंबेडकर का अध्ययन इसके विरुद्ध है। उनके अनुसार दास-दस्यु दो जातियाँ हैं और वे आर्य हैं। राहुल इस सिद्धान्त को मानते हैं कि आर्यों ने मूल निवासियों को पराजित कर दास बनाया, जबकि आंबेडकर इसे एक हास्यास्पद अटकल बाजी मानते हैं। राहुल का मत है कि आर्य गोरे थे, पर आंबेडकर कहते हैं कि आर्य श्यामवर्ण के भी थे, जो ऋग्वेद से ही प्रमाणित होता है। आंबेडकर का यह भी विचार है कि ब्राह्मणों ने योरोपीय विद्वानों के सिद्धान्त को अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के उद्देश्य से अपनाया है, ताकि वे अब्राह्मणों और शूद्र-अतिशूद्रों को हेय दृष्टि से देखते रहें।
सन्दर्भ

1. शूद्रों की खोज, डा. आंबेडकर, हिन्दी अनुवादः एक दलित भारतीय आत्मा, प्रकाशकः बहुजन कल्याण प्रकाशन, 360/193 मातादीन रोड, लखनऊ-3, संस्करण दूसरा 1968 (यह पुस्तक  इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि आंबेडकर ने स्वयं इस अनुवाद को देखा था, जो कि मूल पुस्तक का संक्षिप्त अनुवाद है और इसका प्राक्कथन भी अलग से लिखा था।)
 2. ऋग्वेदिक आर्य, किताब महल, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 2004, पृष्ठ 1
 3. वही
 4. वही, पृष्ठ 1 व 2
 5. वही, पृष्ठ 6
 6. वही, पृष्ठ 9
 7. वही, पृष्ठ 14
 8. वही, पृष्ठ 16
 9. वही, पृष्ठ 18
10.   वही, पृष्ठ 19
11.   वही
12. वही
13.   वही
14.   वही, पृष्ठ 20
15. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-13, डा. आंबेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, संस्करण जून 1998, पृष्ठ 46
16. वही, पृष्ठ 46
17.   वही, पृष्ठ 47
18.   वही, पृष्ठ 171
19.   वही, पृष्ठ 51
20.   वही, पृष्ठ 52
21.   वही, पृष्ठ 52-53
22.   वही, पृष्ठ 53
23.   वही, पृष्ठ 53-54
24.   वही, पृष्ठ 54
25.   वही
26.   वही, पृष्ठ 55
27.   वही
28.   वही
29.   वही
30.   वही, पृष्ठ 55-56
31.   वही, पृष्ठ 56
32.   वही, पृष्ठ 56-57
33.   वही, पृष्ठ 57-58
34.   वही, पृष्ठ 76
35.   वही, देखिए अध्याय 6, शूद्र और दास
36.   वही, पृष्ठ 112
37.   वही, देखिए अध्याय 10 और 11
38.   वही, पृष्ठ 164


39.   वही, पृष्ठ 163
                                                             तीसरा अध्याय 
                                             राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर
                                                          (सन्दर्भ- अछूतोद्धार)


यह हम देख चुके हैं कि राहुल सांकृत्यायन सनातनी साधु से आर्य समाजी और फिर बौद्ध बने और अन्त में कम्युनिस्ट हो गये थे, जबकि डा. आंबेडकर प्रगतिशील हिन्दू रहे और बाद में उन्होंने बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया था। पर, एक समानता थी कि दोनों विद्वान भारत में समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के स्वप्न द्रष्टा थे। यहाँ हम इस प्रश्न पर विचार करेंगे कि अछूतोद्धार की दृष्टि से दोनों के विचार और तरीके क्या थे?
राहुल (1893-1963) और आंबेडकर (1891-1956) दोनों ही समकालीन थे, पर दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग थे। दोनों को एक-दूसरे से मिल भेंटने के अवसर बहुत कम मिले थे, शायद एकाध अवसर ही। जिस समय आंबेडकर ने महाड में चाबदार तालाब से पानी लेने के अधिकार के लिये अछूतों का सत्याग्रह (1927) किया था, उस समय राहुल आर्यसमाज के प्रचारक स्वामी थे और ईश्वर तथा वैदिक वर्णव्यवस्था के समर्थक थे। वे वेद और ईश्वर से मुक्त हो 1930 में श्रीलंका में बौद्ध हुए थे। उसके पांच साल बाद आंबेडकर ने येवला में हिन्दूधर्म छोड़ने की घोषणा की थी। इस समय तक भारत में आंबेडकर के नेतृत्व में अछूत आन्दोलन सीधी लड़ाई ;क्पतमबज ।बजपवदद्ध के रूप में आरम्भ हो गया था। इसके भी काफी पहले स्वामी अछूतानन्द का ‘आदि हिन्दू आन्दोलन’ उत्तर भारत में फैल चुका था। किन्तु, इन आन्दोलनों पर हम राहुल का कोई विचार उनकी रचनाओं में नहीं देखते हैं। समाजवाद पर आधारित उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें ‘साम्यवाद ही क्यों’, ‘दिमागी गुलामी’, ‘तुम्हारी क्षय’ और ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ भी 1934 और 1944 के बीच प्रकाशित हुईं थीं। इन पुस्तकों में अछूतोद्धार का जिक्र तो मिलता है, पर वह जिक्र आंबेडकर के आन्दोलन से पूरी तरह अनभिज्ञ दिखायी देता है। इन पुस्तकों में अछूतों का जिक्र भी सतही तौर पर हुआ है। समकालीन कम्युनिस्ट धारा वर्ग-संघर्ष की थी। जाति के सवाल को वह उसी में शामिल मानती थी। उसका विचार था कि क्रान्ति होने पर जाति की समस्या स्वतः हल हो जायगी। अछूतोद्धार को लेकर राहुल का सतही चिन्तन इसी धारा से प्रभावित था। पर, इसके बावजूद उन्होंने ‘तुम्हारी क्षय’ (1939) में ब्राह्मणवाद और हिन्दू धर्म की दकियानूसी रीतियों का खण्डन किया है। इससे वे निस्सन्देह समकालीन कम्युनिस्ट विचारकों में सबसे ज्यादा प्रगतिशील और क्रान्तिकारी नजर आते हैं। पर, क्रान्ति का तेवर अछूतों के मामले में उनमें बहुत कम नजर आता है। जब वे चैंतीस साल बाद 1943 में अपने पितृ ग्राम कनैला गये, तो उन्होंने देखा कि वहां के भर (पासी) समुदाय ने सुअर-पालना बन्द कर दिया था। इस पर उनकी टिप्पणी थी- ‘‘सत्ताईस बरस पहले भर लोग सुअर पाला करते थे, मगर अब सारे जिले में और आसपास के दूसरे जिलों में भी उन्होंने सुअर पालना बिल्कुल छोड़ दिया है। इससे समाज में उनका स्थान पहले से कुछ ऊँचा हुआ है, इसका तो मुझे पता नहीं, हाँ जीविका के एक साधन से वे वंचित जरूर हो गये। सुअरी एक-एक बार में बीस-बीस बच्चे देती है और साल में तीन बार। पुष्ट भोजन और पैसे की आमदनी का यह एक अच्छा जरिया था।’’1
राहुल की यह टिप्पणी अछूतोद्धार की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। गन्दे पेशों को छोड़ना ही उस समय मुख्य अछूत आन्दोलन था। इसी प्रकार की एक टिप्पणी एक ब्राह्मण ने महाराष्ट्र में की थी, जब आंबेडकर के आन्दोलन की वजह से अछूतों ने गांव मंे मरे हुए पशुओं को उठाना बन्द कर दिया था। आंबेडकर के अनुसार, ‘‘एक चितपावन ब्राह्मण ने पूना के ‘केसरी’ अखबार (तिलक का पत्र) में कई पत्र प्रकाशित करके अछूतों को बरगलाना शुरु कर दिया कि मृत पशुओं के न उठाने से उनका बड़ा नुकसान होगा, क्योंकि पशु की हड्डियों, दांतों, सींगों और खाल आदि के बेचने से पांच-छह सौ रुपया वा£षक लाभ होता है।’’2 अपने नागपुर भाषण में इसका जवाब देते हुए आंबेडकर ने कहा था, ‘‘अरे भले लोगों, तुम हमारे लाभ की चिन्ता क्यों करते हो? अपना लाभ हम खुद सोच लेंगे। अगर तुम्हें इस काम में भारी लाभ दिखायी देता है, तो तुम अपने सम्बन्धियों को क्यों नहीं सलाह देते कि वे मरे हुए पशुओं को उठाकर पांच-छह सौ रुपया वा£षक कमा लिया करें? यदि वे ऐसा करें तो इस लाभ के अलावा उन्हें पांच सौ रुपया इनाम मैं खुद दूंगा, तुम जानते हुए इस मुनाफे को क्यों छोड़ते हो?’’3
‘पूना-पैक्ट’ (1932) के समय राहुल सांकृत्यायन इंग्लैण्ड में थे। यह एक ऐसी घटना थी, जिसने दलित समस्या के प्रति पूरे विश्व का ध्यान आक£षत किया था। इस घटना के बारे में राहुल ने ‘अपनी जीवन यात्रा’ में एक रोचक टिप्पणी लिखी है, जिससे उनके विचारों का पता चलता है। यह टिप्पणी इस प्रकार है- ‘‘27 सितम्बर को गाँधी जी के उपवास-भंग की खबर सुनकर लन्दन के सभी भारतीयों को बहुत प्रसन्नता हुई। मेकडानल्ड के निर्णय के विरोध में गाँधी जी को यह उपवास करना पड़ा था। अछूतों के ऊपर हिन्दुओं ने हजारों वर्षों से जुल्म कर रखा है और उन्हें मनुष्य से पशु की अवस्था में पहुँचा दिया है, इसे देखकर अछूतों को ज्यादा सजग रहने की जरूरत से कौन इनकार कर सकता है। गाँधी जी के रास्ते से अछूतों की समस्या नहीं हल हो सकती, यह भी निश्चित है। फिर अछूत नेता कोई दूसरा रास्ता अख्तियार करना चाहें, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। गाँधी जी ने इसीलिये हड़ताल की थी कि अंग्र्रेजी शासक-वर्ग ने पृथक-निर्वाचन की नीति को मुसलमानों के बाद अब अछूतों के लिये भी स्वीकृत किया था, जिसका स्पष्ट अभिप्राय यही था कि हिन्दुस्तान की शक्ति और छिन्न-भिन्न हो जाय। जिस दिन आमरण उपवास की खबर लन्दन के अखबारों में निकली, वहाँ बहुत सनसनी फैली हुई थी।’’4
राहुल की इस टिप्पणी में आंबेडकर का कहीं जिक्र नहीं है, जो पूना-समझौता में मुख्य नेता थे। उन्होंने इसे अछूत बनाम गांधी के रूप में देखा था और गांधी के उपवास-भंग की खबर से वे प्रसन्न हुए थे। आंबेडकर की पृथक निर्वाचन की मांग को वे अंग्रेजी शासक वर्ग की हिन्दुस्तान की शक्ति को छिन्न-भिन्न करने वाली नीति मानते थे। यह मान्यता उसी सोच की छाया थी, जो आंबेडकर की मांग के विरुद्ध भारत के हिन्दू नेताओं की थी। यहां राहुल सचमुच हिन्दुओं के साथ खड़े थे।

2
राहुल सांकृत्यायन के लेखों का एक संकलन ‘‘दिमागी गुलामी’’ नाम से 1937 में छपा था। डा. आंबेडकर उस समय तक महाड़ (1927) में सामाजिक समानता, नासिक (1930) में धा£मक समानता और (1932) में राजनैतिक समानता के लिये लड़ाई लड़ चुके थे। उनकी ‘‘भारत में जाति’’ तथा ‘‘जाति का विनाश’’ नाम से दो पुस्तकें भी चर्चा में आ चुकी थीं। पर, राहुल अपने इस समय के लेखन में आंबेडकर आन्दोलन से उतने भी परिचित दिखायी नहीं देते, जितने कि प्रेमचन्द थे। इसका कारण सम्भवतः यह हो सकता है कि राहुल का अधिकांश समय घुमक्कड़ी में बीता। जिस समय ये आन्दोलन चल रहे थे, राहुल भारत से बाहर ज्ञान-विज्ञान तलाश रहे थे। तो भी, हमें ‘दिमागी गुलामी’ में अछूत समस्या पर उनके विचार यदा-कदा मिलते हैं और ‘अछूतों को क्या चाहिए’ शीर्षक से एक पूरा लेख भी मिलता है। इन लेखों से हमें राहुल के माक्र्सवादी दृष्टिकोण से किये गये चिन्तन का पता चलता है और यह भी पता चलता है कि वे मौजूदा समाज व्यवस्था को बदलना चाहते थे। ‘हिन्दू-मुस्लिम-समस्या’ लेख में वे उस समय के लिये उतावले नजर आते हैं, ‘‘जब जातिभाव, छुआछूत मिट जायगी और धर्म एवं वेद अतीत की बात हो जायंगे। रोटी-बेटी, वेश-भूषा, भाषा-भाव सब एक हो जायंगे।’’5
यह बात सच है कि सामाजिक बन्धनों को तोड़े बगैर कोई क्रान्ति नहीं होगी। इसलिये सामाजिक बन्धनों को बरकरार रखकर, समाज को बदलने की बात करने वाला राहुल की दृष्टि में साम्यवादी नहीं है। ऐसे छद्म लोगों को सावधान करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘साम्यवादी एक नया संसार, एक नया समाज बनाना चाहते हैं, इसलिये उन्हें हर तरह की कुर्बानियों के लिये तैयार रहना चाहिए। अगर आप शादी-ब्याह अपनी जाति में रखना चाहते हैं, अगर आप मुण्डन और जनेऊ अपनी जाति के रिवाज के मुताबिक करना चाहते हैं, अगर आप खान-पान में स्वयं पाकी रहना चाहते हैं तो आप जैसे साम्यवादी से साम्यवाद को नुकसान ही पहुँचेगा।’’6
उनकी नजर में सामाजिक रूढि़यों को तोड़ने का काम जेल जाने या फाँसी चढ़ने से भी ज्यादा साहस का काम है। वे लिखते हैं- ‘‘साम्यवादियों को इसे तो पहला सामाजिक नियम बना देना चाहिए कि इसमें आने वाला हिन्दू हो या मुसलमान, छूत हो या अछूत, उसे एक साथ खाना-पीना चाहिए। उसको यह न ख्याल करना चाहिए कि साधारण लोग क्या कहेंगे। किसी भी सामाजिक क्रान्ति में शामिल होने वालों को कुछ कड़वा-मीठा सहने के लिये तैयार होना ही चाहिए। लोग जेल जाने और फाँसी चढ़ जाने को बड़ी हिम्मत की बात कहते हैं। समाज की रूढि़यों को तोड़ना और उसके द्वारा उनकी आँखों में काँटे की तरह चुभना जेल और फाँसी से भी ज्यादा साहस का काम है।’’7
इसी लेख में राहुल लिखते हैं कि वे एक गांव में गये, जहां लोगों ने उनसे रूस के बारे में जानना चाहा। उन्होंने जब यह बताया कि कैसे वहां के किसान सामूहिक खेती करते हैं और कैसे वहां के नागरिकों को शिक्षा, चिकित्सा, आवास और रोजगार की हर सुविधा उपलब्ध है, तो उन्हें बड़ा अच्छा लगा। बाद में, लोगों की प्रतिक्रिया के लिये यह भी जोड़ा- ‘‘लेकिन रूस में बहुत सी खराब बातें भी हुई हैं, वहां घुरहू तिवारी की लड़की से मंगरू चमार का लड़का सरेआम ब्याह कर लेता है और उसमें कोई बाधक नहीं हो सकता। वहां खाने-पीने में जात-पांत का सवाल नहीं है। मंगरू चमार अगर रसोई अच्छी बनाना जानता है, तो वही बनायेगा और गांव के ब्राह्मण, राजपूत, सबको एक साथ बैठकर खाना पड़ेगा। अगर बड़ी जाति वालों ने जरा सी आनाकानी की, तो बहुत सम्भव है कि उन्हें देश से निकाल दिया जाय।’’8 वे आगे कहते हैं कि उन्होंने समझा था कि ऐसी बात सुनकर लोग भड़क उठेंगे। ‘‘लेकिन वहां के लोगों को कहते सुना कि अरे, इसमें क्या रखा है, आदमी की तरह सुखपूर्वक जीवेंगे और चिन्ता के बोझ से दिल तो हल्का होगा। कुछ तो कहने लगे- बाबा, यह हमारे यहां कब होगा? हमारी जिन्दगी में हो जायगा कि नहीं।’’9
राहुल ने इस लेख में साम्यवाद और साम्यवादियों के बारे में जितनी बातें कही हैं, वे सारी बातें आंबेडकर भी 1936 में अपने बहुच£चत भाषण ‘‘जाति का विनाश’’ (एनीहिलेशन आफ कास्ट) में कह चुके थे। उदाहरण के लिये, वे एक स्थान पर कहते हैं-
‘‘मेरी राय में, इस बात मंे कोई सन्देह नहीं है कि समाज व्यवस्था में बदलाव लाये बगैर विकास की सम्भावनाएँ अत्यन्त क्षीण हैं। आप समाज को रक्षा या अपराध के लिये प्रेरित कर सकते हैं। लेकिन जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई निर्माण नहीं कर सकते- आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते, आप नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते। जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई भी निर्माण करेंगे, वह चटक जायगा और कभी भी पूरा नहीं होगा।’’10
आंबेडकर इस उपाय को पर्याप्त नहीं मानते थे कि रोटी-बेटी का सम्बन्ध व्यवहार में आने से जाति-व्यवस्था समाप्त हो जायगी। उन्होंने कहा कि हमें उस कारण को खोजना होगा, जो अधिकांश हिन्दुओं को रोटी-बेटी का सम्बन्ध करने से रोकता है।11 जाति-व्यवस्था का विनाश इतना आसान नहीं है। राहुल जी 1937 में जिस साम्यवाद की बात कर रहे थे, वह यदि आसान होता, तो अब तक भारत में कभी का साम्यवाद आ चुका होता। यह क्यों आसान नहीं है? आंबेडकर कहते हैं- ‘‘जाति ईंटों की दीवार या कांटेदार तारों की लाइन जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है, जो हिन्दुओं को मेल-मिलाप से रोकती हो और जिसे तोड़ना आश्वयक हो। जाति एक धारणा है और यह एक मानसिक स्थिति है।’’12 उन्होंने कहा कि असली शत्रु वे लोग नहीं हैं, जो जाति को मानते हैं, बल्कि वे शास्त्र हैं, जिन्होंने जाति-धर्म की शिक्षा दी है। रोटी-बेटी का सम्बन्ध न करने या समय-समय पर अन्तरजातीय खान-पान और अन्तरजातीय विवाहों का आयोजन न करने के लिये लोगों की आलोचना या उनका उपहास करना वांछित उद्देश्य को प्राप्त करने का एक निरर्थक तरीका है। वास्तविक उपचार यह है कि शास्त्रों ने लोगों के धर्म, विश्वास और विचारों को ढालना जारी रखा, तो आप कैसे सफल होंगे?’’13
वस्तुतः राहुल इसी मत के थे। उन्होंने गाँधी की आलोचना इसी आधार पर की थी कि वे शास्त्रों में विश्वास करते थे। अपने लेख ‘गाँधीवाद’ में वे लिखते हैं- ‘‘सबसे बड़ी बेवकूफी, जिसे गांधीवाद ने सहारा और उत्तेजना दी है, वह धर्म की कट्टरता है। लोग कहेंगे कि गांधी जी ने अछूतोद्धार- जैसे आन्दोलन उठाकर धर्म के विचारों में भी तो क्रान्ति पैदा की है। अछूतोद्धार तो मालवीय जी भी अपने ढंग से करना चाहते हैं और साथ में हिन्दू यूनिव£सटी में बीस लाख रुपया लगाकर एक नया विश्वनाथ तैयार करना चाहते हैं। क्या यह बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दू नेता की सबसे बड़ी बेवकूफी नहीं है? गांधी जी के अछूतोद्धार का महत्व तब बहुत घट जाता है, जब हम उसके साथ ऋषि-मुनियों और उनके ग्रन्थ गीता आदि के गौरव को उनके द्वारा खूब बढ़ाया जाता देखते हैं। जिन ग्रन्थों में अछूतपने की बात भरी पड़ी है और जिन ऋषि-मुनियों ने अपने आश्रमों के आस-पास मनुष्य नामधारी दास-दासियों के ऊपर सहòाब्दियों तक अमानुषिक अत्याचार होते देखकर भी अपनी तपस्या भंग न की, उनके ग्रन्थ अछूतोद्धार के बाधक छोड़, साधक कैसे हो सकते हैं?’’14 उनके लिये यह समझना मुश्किल था कि ‘‘शास्त्र और ऋषि-मुनियों के गौरव में भी कोई बट्टा न आने पाये और साथ ही मुनियों का यह सबसे बड़ा अत्याचार भी हमारे समाज से विदा हो जाय।’’15
आंबेडकर जानते थे कि लोगों से जातपांत त्यागने के लिये कहने का अर्थ उनको मूल धा£मक धारणाओं के विपरित चलने के लिये कहना है।16 क्योंकि उनके अनुसार, शास्त्रों को पवित्र और ईश्वरीय माना जाता है, इसलिये उस पवित्रता और देवत्व को नष्ट करना होगा, जो जाति-व्यवस्था में समाया हुआ है। इसका अर्थ यह है कि आपको ‘‘शास्त्रों और वेदों की सत्ता समाप्त करनी होगी।’’17 यह सत्ता किस तरह समाप्त होगी? आंबेडकर का विचार यह है कि ‘‘इसके लिये आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा, क्योंकि वेद और शास्त्र किसी भी तर्क से (आदमी को) अलग हटाते हैं और किसी भी नैतिकता से वंचित करते हैं।’’18 राहुल सांकृत्यायन वेद-शास्त्रांे की सत्ता को ही ‘दिमागी गुलामी’ कहते हैं।
यही दिमागी गुलामी जाति व्यवस्था को सुरक्षित रखती है। राहुल यहां आंबेडकर से सहमत दिखायी देते हैं या दूसरे शब्दों में आंबेडकर की तरह राहुल भी मानते हैं कि ‘‘शुद्ध राष्ट्रीयता तब तक आ ही नहीं सकती, जब तक आप जाति-पांति तोड़ने पर तैयार न हों।’’19
डा. आंबेडकर धर्म की क्रान्ति में नहीं, समाजवादी व्यवस्था में दलित-मुक्ति मानते थे। धर्म संस्कृति को बदलता है, और इसी बदलाव के लिये उन्होंने दलितों के लिये बौद्धधर्म को स्वीकार किया था। पर, उनकी दृष्टि में आ£थक विकास और मुक्ति समाजवादी व्यवस्था में ही है। वे भारत में मजदूरों की सरकार चाहते थे, न कि सामन्तों और पूंजीपतियों की।20
हम ‘दिमागी गुलामी’ में देखते हैं कि राहुल भी साम्यवाद में ही खेतिहर-मजदूरों की आ£थक मुक्ति मानते हैं। वे लिखते हैं, ‘‘खेतिहर-मजदूरों को ख्याल करना चाहिए कि उनकी आ£थक मुक्ति साम्यवाद ही से हो सकती है और जो क्रान्ति आज शुरु हुई है, वह साम्यवाद पर ही ले जाकर रहेगी। उसके सिवा भले दिनों को दिखलाने वाला कोई दूसरा रास्ता नहीं है।’’21
आंबेडकर समाजवादी थे और राहुल साम्यवादी। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि समाजवाद के रास्ते ही साम्यवाद आयगा। दोनों व्यवस्थाएँ जाति और वर्ग विहीन समाज को मूर्त रूप देती हैं। दलित वर्गों में सर्वहारा और खेत मजदूरों की संख्या सबसे ज्यादा है। पर, जातीय भेदभाव के कारण अन्य जातियों के सर्वहारा और खेत मजदूर उनके साथ एकता नहीं बनाते हैं। जाति व्यवस्था भारत के सारे मजदूरों को एक नहीं होने देती। आंबेडकर ने दलितों को यह सलाह दी थी कि वे अपने आ£थक हितों के लिये जाति के रूप में नहीं, बल्कि एक वर्ग के रूप में संगठित हों और संघर्ष करें।22 उन्होंने 1942 में कहा था कि दलित वर्ग आन्दोलन को अन्य समुदाय के मजदूर संगठनों के साथ मिलकर पूंजीपतियों, जमींदारों और अन्य शोषक वर्गों के खिलाफ एक साझा मंच बनाने की जरूरत है।23
बिहार में लगभग उसी काल में खेत-मजदूरों का एक ऐसा ही मंच काम भी कर रहा था, जिसके नेता दलित जातियों के लोग थे। लेकिन, राहुल इस मंच का विरोध कर रहे थे। यह विरोध उनके लेख ‘खेतिहर-मजदूर’ में मौजूद हैं। वे लिखते हैं, ‘‘बिहार में खेतिहर-मजदूरों का जो आन्दोलन चला है, उसके प्रवर्तकों में कुछ ‘हरिजनों’ के नेता भी शामिल हैं। उन भाइयों से मेरा विनम्र निवेदन है कि खेतिहर-मजदूर के नाम से अपना संगठन करके, हरिजन भाई लोग (मैं इस शब्द से बहुत घृणा करता हूँ, लेकिन अपने अर्थ को स्पष्ट करने के लिये इसका इस्तेमाल कर रहा हूँ) गलती कर रहे हैं। उनको सीधा-शुद्ध अपना एक संगठन रखना चाहिए, क्योंकि उनकी समस्याएँ इतनी विकट हैं और सामाजिक, धा£मक और आ£थक सभी क्षेत्रों में फैली हुई है कि यदि वे खेतिहर-मजदूर के नाम पर छूत-अछूत सबको जमा करने लगेंगे, तो वे हवा हो जायेंगे। जहाँ कहीं कुछ भी पर्ती बकाश्त, जिरात या जंगल की जमीन मिलेगी, वह सभी खेतिहर-मजदूरों के लिये यदि दे दी जायगी, तो नतीजा यह होगा कि छूत जाति वाले (सवर्ण), जिनकी पहंुच आसानी से अधिकारियों तक हो सकती है, उन जगहों को ले लेंगे और हरिजन के पल्ले बहुत कम पड़ेगा।’’24 अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे आगे लिखते हैं- ‘‘छूत जाति के खेतिहर-मजदूरों की अवस्था उतनी हीन और अन्यायपूर्ण नहीं है, जैसे कि अछूत कही जाने वाली जातियों की। छूत जाति वाले पान की दूकान खोल सकते हैं, हलवाई भी बन सकते हैं, होटल भी चला सकते हैं और पचास तरह के और काम कर सकते हैं। प्राइवेट नौकरियों में भी उनको आसानी है, लेकिन वही बात अछूत कही जाने वाली जातियों के लिये नहीं कही जा सकती। सामाजिक अत्याचार, जो अछूत कही जाने वाली जातियों पर हो रहा है, उसके कारण उनकी आ£थक उन्नति के सभी मार्ग बन्द हैं, उनकी सारी शक्ति चाहिए तो थी कि इस ओर लगती, जिससे वे अपने को शिक्षा और आ£थक उन्नति के दूसरे साधनों को प्राप्त कर, अपनी अवस्था को कुछ बेहतर बनाते और साथ ही रास्ते में पड़ने वाली रुकावटों को दूर करते। ऐसे समय में किसानों के अत्याचारों को लेकर झगड़ा पैदा करने में अपनी ही शक्ति निर्बल होगी।’’25
यहाँ राहुल कहते तो ठीक हैं कि सवर्णों की समस्याएँ उतनी नहीं हैं, जितनी अछूतों की हैं। सवर्ण हर क्षेत्र में जा सकते हैं, जबकि अछूतों के लिये सभी रास्ते बन्द हैं। पर, सवाल यह विचारणीय है कि खेत-मजदूर की लड़ाई जातीय लड़ाई नहीं है, वह वर्ग चेतना की लड़ाई है। इस लड़ाई में जाति के नाम पर दलितों को अलग करना वर्गीय संघर्ष को कमजोर करना है। एक तरफ हम वर्ग-संघर्ष में दलितों को शामिल करने की बात करते हैं, किन्तु दूसरी तरफ जब दलित-मजदूर अन्य समुदायों के मजदूरों को लेकर अपना मोरचा बनाते हैं, तो उन्हें राहुल यह सलाह देते हैं कि इससे उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा और वे अपनी शक्ति निर्बल कर लेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि सवर्णों के मजदूर आन्दोलन में दलित मजदूर शामिल हो सकते हैं, पर दलित मजदूरों को अपना पृथक मजदूर आन्दोलन नहीं चलाना चाहिए। वे अपने सामाजिक आन्दोलन तक ही सीमित रहें। शायद यह नेतृत्व की समस्या हो सकती है। राहुल नहीं चाहते थे कि सवर्ण मजदूर दलित नेताओं के नेतृत्व में आन्दोलन करें। हो सकता है कि यह मन्तव्य राहुल का न रहा हो और वे सचमुच अछूतों को सावधान करना चाहते थे कि यदि वे सवर्णों को अपने आन्दोलन से जोड़ेंगे, तो सवर्ण ही अपने प्रभाव से सब कुछ हासिल कर लेंगे, अछूतों को कुछ नहीं मिलेगा। पर, जिस साम्यवाद के राहुल पक्षधर थे, उस दृष्टि से उनके इस मत को साम्यवाद के पक्ष में नहीं माना जा सकता।
जैसा कि कहा गया है कि दलितों की सबसे बड़ी आबादी खेत-मजदूरों और लघु किसानों की है, तो काफी हद तक भारत की कृषि-समस्या दलित समस्या से भी जुड़ी हुई है। राहुल ने लिखा है कि खेतिहर-मजदूरों के वेतन में वृद्धि तभी सम्भव है, जब किसानों की आमदनी बढ़े। पर, किसानों के लिये और जमीन कहां से आये? उनके पास जो दो-चार बीघे जमीन है, वह उनके लिये भी पर्याप्त नहीं, फिर वे खेतिहर-मजदूरों को क्या देंगे।26 इसका हल उनकी दृष्टि में यह है- ‘‘हमारी समस्याएँ तो तभी हल होंगी, जब जमींदारी हटा दी जाय, खेतों पर भी किसी व्यक्ति का अधिकार न होकर राष्ट्र का अधिकार हो। गांव के सभी खेतों की मेड़ें हटाकर एक खेत बना दिया जाय और ट्रैक्टर के जरिये खेत जोते जायँ, लोग मिलकर सामूहिक खेती करें और उस खेती में नये आविष्कारों तथा कृषि-उपयोगी साधनों को वर्ता जाय। तभी जाकर हम एक बीघे में जापान की तरह सात सौ, आठ सौ रुपये की चीज पैदा कर सकेंगे और तभी जाकर यदि एक-दो जिले में सूखा पड़ जाय या बाढ़ आ जाय, तब भी दूसरे जिले की पैदावार से लोगों को भूखा नहीं मरना पड़ेगा।’’27
राहुल यहां छोटी जोतों को बड़ी जोतों में बदलने और सामूहिक रूप से खेती करने की बात करते हैं, साथ ही वे यह भी कहते हैं कि खेती नयी तकनीक से हो और खेतों पर राष्ट्र का अधिकार हो। राहुल किसानों और खेतिहर-मजदूरों को अलग करके देखते हैं और मजदूरों को किसानों से झगड़ा मोल न लेने को कहते हैं।28 मैं यह कहना ठीक नहीं समझता कि राहुल को भारत की कृषि-समस्या की सम्यक जानकारी नहीं थी, पर वे राष्ट्रीयकरण और निजीकरण दोनों के साथ कैसे रह सकते हैं, यह समझ से परे है।
भारत की कृषि समस्या पर आंबेडकर ने 1918 में ‘‘स्माल होल्ंिडग्स इन इंडिया एण्ड दियर रमेडीज़’’ निबन्ध लिखा था, जिसमें उन्होंने काफी विस्तार से छोटी जोतों, चकबन्दी और खेतिहर-मजदूरों की समस्या पर विचार किया है। इस निबन्ध में वे लिखते हैं कि जमीन पर जनसंख्या का सबसे अधिक दबाव सारी दुनिया में किसी और देश में नहीं मिलता, जितना कि भारत में मिलता है। उनके अनुसार, यह दबाव इसलिये है कि यहाँ की अधिसंख्य जनता कृषि पर निर्भर करती है। खेतिहर जनता की संख्या बहुत अधिक है और भूमि कम है।29 आंबेडकर के अनुसार, उत्तराधिकार के कानून से जमीन और भी टुकड़ों में बंट जाती है, क्योंकि जब खेती का ही धंधा करना है, तो जमीन का छोटा टुकड़ा ही बेहतर है।30 खेतिहर जनता छोटे से खेत पर भी पैदावार के काम में अधिक से अधिक लगना चाहती है, तो भी उनमें से बड़ा भाग निश्चित रूप से निठल्ला रहेगा ही। निठल्ली जनता कमाये, चाहे न कमाये, उसे जीवित रहने के लिये रोटी चाहिए ही। इसलिये वे कहते हैं कि निठल्ला मजदूर एक नासूर की तरह है, क्योंकि वह हमारे राष्ट्रीय लाभांश में वृद्धि करने की बजाय, जो कुछ थोड़ी बहुत बचत होती है, उसे भी खा जाता है।31
आंबेडकर इस मत के थे कि सवाल छोटी-बड़ी जोत का नहीं है, बल्कि पूंजी और पूंजीगत सामान बढ़ाने की जरूरत का है।32 वे कहते हैं कि हमारी कृषि-समस्या हमारी खराब सामाजिक अर्थ व्यवस्था के कारण पैदा हुई है।33 इसलिये उनका कहना है, ‘‘यदि हम फालतू श्रमिकों को उत्पादन की गैर-कृषि प्रणालियों में लगा सकें, तो हम एक बार में ही कृषि पर से दबाव कम कर सकेंगे और भूमि पर जो इतना अधिक महत्व दिया जाता है, वह भी कम हो जायगा। इसके अतिरिक्त जब ये श्रमिक उत्पादन की गैर-कृषि प्रणालियों में लग जायेंगे, तो आज की तरह से दूसरे के सहारे अपना पेट नहीं भरेंगे और वे न केवल कमायेंगे, बल्कि हमें सरप्लस उत्पादन भी देंगे, जिसका अर्थ होगा अधिक पूंजी।’’34
इसलिये आंबेडकर की दृष्टि में भारत की कृषि- सम्बन्धी समस्याओं का एक मात्र हल उसका औद्योगीकरण है। औद्योगीकरण से जोतों का आकार बढ़ाने को प्रोत्साहन तो मिलेगा ही, वह जमीन के उपविभाजन और विखण्डन को भी रोकेगा।35 उनके अनुसार, भारत में खतरा अत्यधिक कृषि का है।36
आंबेडकर चाहते थे कि कृषि राज्य का उद्योग हो।37 इस तरह वे भूमि का राष्ट्रीकरण चाहते थे, जैसा कि राहुल चाहते थे। राहुल ने सामूहिक खेती की बात कही है, आंबेडकर कृषि के राष्ट्रीयकरण में सामूहिक फार्म की खेती के पक्षधर थे।38 वे चाहते थे कि गांव के लोगों को जाति या धर्म के भेदभाव के बिना पट्टे पर जमीन दी जाय और ऐसी रीति से पट्टे पर दी जाय कि कोई जमींदार न रहे, कोई पट्टेदार न रहे और न कोई भूमिहीन मजदूर रहे। पानी, जोतने-बोने के लिये पशु, उपकरण, खाद, बीज आदि की व्यवस्था फार्म की खेती के लिये राज्य करे और फार्म पर खेतीबारी सामूहिक फार्म के रूप में की जाय।39 इसे स्पष्ट करते हुए आंबेडकर आगे कहते हैं कि चकबन्दी और काश्तकारी के कानून इतने बदतर हैं कि वे करोड़ों अछूतों के लिये सहायक नहीं हो सकते। केवल सामूहिक फार्म ही उनके लिये सहायक हो सकते हैं।40
राहुल सिर्फ किसानों के लिये क्रान्ति चाहते थे, खेतिहर मजदूरों के लिये नहीं। वे खेतिहर-मजदूरों को जमींदारों के इशारे पर किसानों के खिलाफ लड़ने वाला मानते थे।41 उनका कहना था कि किसानों की समस्या जब हल हो जायगी, यानी जब उनकी आमदनी बढ़ जायगी, तो खेतिहर-मजदूरों की समस्या भी हल हो जायगी, यानी उनकी मजदूरी में भी वृद्धि हो जायगी।42 लेकिन, आंबेडकर के पास किसानों और खेतिहर-मजदूरों दोनों की समस्या का हल था और वह है कृषि का तीव्र औद्योगीकरण, भूमि का राष्ट्रीयकरण और सामूहिक फार्म की खेतिबारी।
‘दिमागी गुलामी’ में राहुल सांकृत्यायन का एक लेख अछूतों के सम्बन्ध में भी है, जिसका शीर्षक है- ‘‘अछूतों को क्या चाहिए?’’ इस लेख में राहुल लिखते हैं, ‘‘इस शताब्दी के प्रारम्भ से ही हमारे कुछ नेताओं ने हरिजनों पर होने वाले अत्याचारों पर विचार करना प्रारम्भ किया है। सच पूछिए, तो महात्मा गांधी के उत्थान के पूर्व हमारे इन भाइयों के अभ्युदय के प्रश्न पर गम्भीरता से विचार ही नहीं किया गया था।’’43
यहां राहुल ने आंबेडकर, ज्योतिबा फुले और स्वामी अछूतानन्द की पूर्ण उपेक्षा करते हुए गांधी को अछूतों के उत्थान के लिये काम करने वाला पहला व्यक्ति माना है। इस पूरे लेख में उन्होंने ‘हरिजन’ शब्द का प्रयोग किया है, जिससे वे घृणा करते थे। वे आगे लिखते हैं, ‘‘हरिजन, जो अधिकतर खेत-मजदूर हैं, गुलामों से अच्छी परिस्थिति में नहीं हैं। थोड़े से रुपये उधार लेकर उन्हंे अपना शरीर बेचना पड़ता है। उनके मालिक, उनकी केवल वे ही आवश्यकताएँ पूरी करते हैं, जिनसे वे केवल प्राण धारण कर सकें। पुश्तें बीत जाती हैं, किन्तु वह कर्ज कभी अदा नहीं होता।’’44
किन्तु, वे खेत-मजदूर जब अपने मालिकों अर्थात् किसानों से अपने हकों के लिये लड़ते हैं, तो राहुल उनकी उपेक्षा करते हैं और कहते हैं कि ‘‘हम सभी क्रान्तियाँ एक साथ नहीं कर सकते।’’45
राहुल स्वीकार करते हैं कि ‘‘आ£थक स्वतन्त्रता ही सभी स्वतन्त्रताओं की जननी है और उस स्वतन्त्रता की छाया भी इन अभागों (अछूतों) से दूर रखी जाती है तो इनके उज्जवल भविष्य की आशा हम क्योंकर कर सकते हैं।’’46
1930 में अछूतों ने आंबेडकर के नेतृत्व में नासिक में धा£मक समानता का अधिकार प्राप्त करने के लिये सत्याग्रह किया था। पूना-पैक्ट के बाद गांधी और कांग्रेस ने भी अछूतों के लिये मन्दिर-प्रवेश की आवाज उठायी और परिणामतः 1935 में भारत सरकार ने कानून बनाकर अछूतों को मन्दिर में प्रवेश करने का अधिकार दिया। राहुल इसके विरुद्ध थे। वे इसी लेख में आगे लिखते हैं, ‘‘उनके लिये मन्दिरों के द्वार खोलने के लिये प्रचार करने में हमें समय नहीं खोना चाहिए। यह काम केवल व्यर्थ ही नहीं, बल्कि खुद हरिजनों के लिये खतरनाक भी है। यह पुरोहितों की चालाकी और धर्मान्धता ही है, जो कि उनकी वर्तमान अधोगति का कारण है। इन सरल मनुष्यों को जहन्नुम में जाने दीजिए। अगर आपके सामने अपने देश और अपने लिये कोई सच्चा आदर्श है तो उनकी आ£थक विषमताओं का अध्ययन कीजिए और उनको दूर करने की चेष्टा कीजिए।’’47
आंबेडकर भी मन्दिर-प्रवेश के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने नासिक में राम-रथ खींचने के लिये अछूतों के सत्याग्रह का नेतृत्व इसलिये किया था, क्योंकि एक हिन्दू होने के नाते अछूतों को भी समानता के आधार पर रथ खींचने का अधिकार मिलना चाहिए था। पर, ऐसा नहीं हो सका। हिन्दू समाज के धर्मगुरुओं ने अछूतों के प्रति गैर-हिन्दू जैसा कठोर व्यवहार किया। जब कांग्रेस मन्दिर-प्रवेश की मुहिम चला रही थी, तो आंबेडकर उसके समर्थन में नहीं थे। उन्हांेने 23 मई 1932 को पूना में कहा था कि उन्हें मन्दिरांे, या कुँओं अथवा अन्तरजातीय भोजों की जरूरत नहीं है, वरन् उन्हें सरकारी नौकरियों, भोजन, कपड़ा, शिक्षा और विकास के अन्य अवसर चाहिए।48
मन्दिर-प्रवेश की मुहिम पर उन्होंने गांधी और कांग्रेस के नेताओं को कहा था कि उनके लोग मात्र मन्दिर-प्रवेश से सन्तुष्ट नहीं होंगे। उन्होंने कहा कि गांधी और उनके समाज सुधारक मित्रों को चाहिए कि वे पहले सम्पूर्ण जाति-व्यवस्था पर प्रहार कर उसका सफाया करें और अछूतों को हिन्दू समाज में बिना पाबन्दियों के स्वीकार करें। उनका कहना था कि मन्दिर अछूतों के स्तर को ऊपर नहीं उठा सकते, वे जाति-आधारित समाज में निम्नतम स्तर के ही बने रहेंगे।49
राहुल और आंबेडकर दोनों ही मन्दिर के पक्ष में नहीं थे। दोनों ही दलितों की मुक्ति आ£थक विकास में मानते थे। राहुल की दृष्टि में आ£थक विकास के तीन उपाय थे। एक, उन्हें कृषि के लिये भूमि दी जाय। उनके अनुसार, अछूतों की जितनी जनसंख्या है, उसके हिसाब से उतनी जमीन की बचत नहीं है। इसलिये, उनका सुझाव था कि सरकार उन बड़े-बड़े जमींदारों की बकाश्त जमीन को लेकर अछूतों (खेतीहर-मजदूरों) को बांट दे, जिनकी जीविका खेती नहीं है।50
दूसरा उपाय, उनकी दृष्टि में गृहशिल्प था। राहुल ने लिखा है कि शहरों और कस्बों में अछूतों के लिये बस्तियाँ बसानी चाहिए और उन्हंे गृह-शिल्प के नये तरीके सिखाये जाने चाहिए, जिनमें बिजली की जरूरत न हो। वे लिखते हैं कि इन बस्तियों में रहने पर वे गांवों की संकीर्णता से मुक्त हो, जीवन को नये ढंग से शुरु कर सकते हैं। आगे राहुल यह भी जोड़ते हैं कि इन आदर्श बस्तियों में यदि कोई सवर्ण रहना चाहे तो उसे इस शर्त पर रहने की इजाजत दी जाय कि वह उनके साथ बराबरी का व्यवहार करेगा और उनके परिश्रम का गलत लाभ नहीं उठायेगा।51
तीसरा उपाय राहुल की दृष्टि में यह था कि सरकार भविष्य की औद्योगिक योजना में ‘‘हरिजनों को अधिक से अधिक आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करे।’’52
कृषि के मामले में हम आंबेडकर के विचार को देख चुके हैं कि वे सामूहिक फार्म बनाकर खेती की योजना चाहते थे। उनकी दृष्टि में जमीनें बांटना स्थायी हल नहीं था, क्योंकि जनसंख्या के हिसाब से जमीनों का विभाजन होता रहता है और छोटी जोतें लाभकारी नहीं रह जातीं। वे कृषि पर निर्भरता को कम से कम करना चाहते थे और तीव्र औद्योगीकरण के पक्ष में थे।
यहाँ तक नयी बस्तियों का प्रश्न है, आंबेडकर ने स्वयं उसका प्रस्ताव संविधान सभा को दिया था। यह प्रस्ताव उस ज्ञापन में मौजूद है, जिसे उन्होंने 1947 में अखिल भारतीय शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन की ओर से प्रस्तुत किया था। इसके अनुच्छेद-दो, अनुभाग-4 के खण्ड-2 में कहा गया है कि नये संविधान के अधीन एक बन्दोबस्त आयोग होगा, जो अलग-अलग गांवों में अनुसूचित जातियों के विस्थापन के लिये राज्य की जोत से भूमि की व्यवस्था करेगा।53 इसका खुलासा करते हुए वे कहते हैं कि इसका एक उद्देश्य अछूतों को हिन्दुओं की दासता से मुक्त करना है। उनके अनुसार, गांवों में रहते अछूतों को अछूतपन से छुटकारा नहीं मिल सकता, क्योंकि ‘‘गांवों के साथ लगी गन्दी बस्तियों की प्रणाली ही अस्पृश्यता को स्थायी बनाती है।’’ इसलिये उनकी मांग थी कि अछूतों को क्षेत्रीय और भोगौलिक रूप से अलग करके अलग गांवों में बसाया जाय, जो केवल अछूतों के गांव हों और जिनमें ऊँच-नीच का और छूत-अछूत का कोई भेद न हो।54
पृथक बस्तियों की मांग का दूसरा कारण, आंबेडकर ने यह माना था कि अछूतों की आ£थक स्थिति बहुत दयनीय है। वे भूमिहीन मजदूर किसान हैं, जो पूरी तरह हिन्दुओं पर निर्भर करते हैं। गांव में वे अन्य कोई काम नहीं कर सकते, क्योंकि अछूत होने के कारण कोई हिन्दू उनसे लेन-देन नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में, आंबेडकर कहते हैं कि ‘‘जब तक अछूत हिन्दू गांव के अधीन उसके भाग के रूप में गन्दी बस्तियों में रहते हैं, तब तक वे अपने लिये उपलब्ध रोजगारों से जीविका नहीं कमा सकते।’’55
ऐसी पृथक बस्तियों का निर्माण सरकार की ओर से जनजातियों के लिये किया भी गया है, जिन्हें हम ‘उन्नयन बस्तियों’ के रूप में जानते हैं। इन बस्तियों के काफी अच्छे परिणाम भी सामने आये हैं। नयी बस्तियों में रहकर उन लोगों ने पुश्तैनी धन्धे छोड़कर नये रोजगार अपनाये हैं, अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया और नागरीय संस्कृति में अपना विकास किया है। अभी भी ऐसी बहुत सी खानाबदोश जातियाँ हंै, जिन्हें विकास की मुख्य धारा में लाने के लिये ऐसी पृथक बस्तियों की बहुत ज्यादा जरूरत है।
अछूतों के लिये पृथक बस्तियों की मांग जिस समय राहुल और आंबेडकर कर रहे थे, उसके पीछे हिन्दू गांवों की सामन्ती व्यवस्था थी, जिसमें अछूतों के लिये स्वतन्त्रता, समानता और सम्मान के लिये कोई जगह नहीं थी। आंबेडकर ने भारतीय गांवों को, (जिन्हें हिन्दू रिपब्लिक कहते हैं) अछूतों पर आधारित हिन्दूओं का एक विशाल साम्राज्य और अछूतों का शोषण करने के लिये हिन्दुओं का उपनिवेश कहा था।56 ऐसी स्थिति में अछूतों के पुनर्वास के लिये पृथक बस्तियों की मांग गलत नहीं थी।
1942 में, स्वतन्त्रता आन्दोलन के चरम काल में और विश्वयुद्ध के समय में राहुल सांकृत्यायन की कहानियों का संग्रह ‘वोल्गा से गंगा’ प्रकाशित हुआ था। उसकी अन्तिम कहानी ‘सुमेर’ में न सिर्फ दलित समस्या पर, बल्कि स्वतन्त्र भारत में किस तरह की व्यवस्था कायम होनी चाहिए, इस विषय पर भी चर्चा हुई है। मुख्य पात्र सुमेर एक अछूत जाति से है और पटना कालेज का विद्यार्थी है। वह साम्यवादी विचारधारा को मानता है और जितना वह गांधी और गांधीवादी दर्शन का आलोचक है, उतना ही कटु आलोचक वह आंबेडकर का भी है। इस कहानी में सुमेर के रूप में राहुल स्वयं मौजूद हैं। सुमेर कहता है कि आंबेडकर के रास्ते और कांग्रेस अछूत नेताओं के रास्ते में कोई अन्तर नहीं है। उसकी समझ में आंबेडकर का रास्ता गांधी-बिड़ला-बजाज रास्ते से ही मिल जाता है।57
असल में आंबेडकर को लेकर राहुल जिस गलत धारणा के शिकार थे, उस समय के सभी कम्युनिस्ट नेता उसके शिकार थे। वे जाति के खिलाफ दलितों के संघर्ष को साम्राज्यवादी नीति का हिस्सा मानते थे। उन्होंने यह सोचने की कोशिश ही नहीं की कि जाति-व्यवस्था को खत्म किये बिना इस देश में कोई माई का लाल साम्यवादी क्रान्ति लाने में सफल नहीं हो सकता। राहुल स्वयं अपने विचारों में बहुत स्थानों पर ब्राह्मणवाद से ग्रस्त थे। उदाहरण के लिये उन्होंने अपनी जीवन-यात्रा में एक स्थान पर लिखा है कि प्रगतिशीलता का अर्थ पुरातन को छोड़ना नहीं है। इसी आधार पर वे सूर और तुलसी को अपनाने की बात करते हुए लिखते हैं, ‘‘प्रगतिशीलता का यह मतलब नहीं है कि सूर, तुलसी, कालीदास और वाण दकियानूसी विचार वाले समझें जायें। वह सामन्ती युग में पैदा हुए थे। उनकी कविता से सामन्त समाज की पुष्टि हुई थी, इसलिये उनकी कविताएँ गंगा में बहा देनी चाहिए। महान कवि चाहे किसी समाज और युग में पैदा हुए हों, वह हमेशा हमारे लिये महान रहेंगे।’’58
मैं समझता हूँ कि ब्राह्मण कितना ही प्रगतिशील क्यों न हो, वह ब्राह्मण के नाम पर आत्ममुग्धता का शिकार जरूर हो जाता है। राहुल में ब्राह्मण जाति का भले ही कोई संस्कार न रह गया हो, पर ब्राह्मण-मुग्धता उनमें जरूर बाकी थी। यही कारण है कि जिन ब्राह्मणवादी (और सामन्तवादी) कवियों को गंगा में बहा देना चाहिए था, वे उन्हें अपनाने की बात करते हैं। उनके लिये सामन्तवाद का पोषण ग़लत नहीं है, क्योंकि उसका पोषक ब्राह्मण है। यह राहुल की प्रगतिशीलता पर एक ऐसा धब्बा है, जिसे कोई डिटरजेंट साफ नहीं कर सकता।
‘सुमेर’ जिस समय की कहानी है, उस काल में आंबेडकर दलित वर्गों को ही नहीं, सारी सर्वहारा और मजदूर जनता को समाजवाद का पाठ पढ़ा रहे थे। वे उस समय की सभी समाजवादी ताकतों का आह्नान कर रहे थे कि वे ब्राह्मणों, पूंजीपतियों, जमींदारों और अन्य शोषक वर्गों के खिलाफ साझा मोरचा बनायें।59 वे मजदूरों की सरकार चाहते थे60 और मजदूरों को कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो पढ़ने की गुहार लगा रहे थे।61 राहुल सांकृत्यायन ने सम्भवतः आंबेडकर को रत्ती भर पढ़ने की कोशिश नहीं की थी, अन्यथा वे उन्हें पूंजीपतियों के रास्ते पर चलने वाला करने का अपराध न करते।
‘सुमेर’ में विश्वयुद्ध का वर्णन है। सुमेर अपने साथी से कहता है कि ‘‘इसी लड़ाई के साथ मजदूरिन के लड़के और उसकी सारी जमात का भविष्य बँधा हुआ है। इसलिये कि यह लड़ाई अब सिर्फ साम्राज्यों का ही फैसला नहीं करेगी, बल्कि शोषण का भी फैसला करेगी।’’62 सुमेर साम्राज्यवाद के खिलाफ और नयी व्यवस्था के हित में इस युद्ध में भाग लेता है और शत्रुओं के विमानों को टारपीडो से भेदता हुआ शहीद हो जाता है।
राहुल ने ‘वोल्गा से गंगा’ के ‘प्रथम संस्करण का प्राक्कथन’ सेन्ट्रल जेल, हजारी बाग में 23 जून 1942 को लिखा था। इसका मतलब है कि किताब जुलाई में छपी होगी। युद्ध उस समय चल रहा था, समाप्त नहीं हुआ था। जेल में राहुल जी को अखबार वगैरह नहीं मिल रहे होंगे और हो सकता है, बाहर की दुनिया से जुड़ने का कोई अन्य माध्यम भी उनके पास शायद न रहा हो- इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। फिर, क्या कारण है कि राहुल जी को यह नहीं मालूम हो सका कि आंबेडकर उस युद्ध को आम जनता का युद्ध (पीपुल्स वार) कह रहे थे और मजदूरों को इस युद्ध को क्यों जीतना चाहिए, इस पर जोर दे रहे थे।63 इस विषय पर उनके वक्तव्य बराबर अखबारों में छप रहे थे। सुमेर ने जो कहा है, उसमें आंबेडकर ही बोल रहे हैं। ठीक इन्हीं शब्दों में आंबेडकर ने अपनी रेडियो वार्ता में कहा था कि नाजीवाद भारतीयों की स्वतन्त्रता के लिये प्रत्यक्ष खतरा है। इसलिये भारतीयों को नाजीवाद से लड़ने के लिये इस युद्ध में भाग लेना चाहिए। यह युद्ध नयी व्यवस्था के लिये लड़ा जा रहा है। यह युद्ध केवल युद्ध नहीं, एक क्रान्ति है। अगर हम जीतते हैं, तो स्वाधीनता और नयी सामाजिक व्यवस्था इसके परिणाम होंगे।64
सुमेर भारत के विभाजन अर्थात् पाकिस्तान का समर्थन करता है। यह समर्थन लगभग उन्हीं शब्दों में है, जिन शब्दों में आंबेडकर ने अपने ग्रंथ ‘पाकिस्तान’ में किया है। अखण्ड भारत और उसकी सीमाओं को लेकर भी सुमेर के तर्क आंबेडकर के ही तर्क हैं।65 ऐसी स्थिति में राहुल ने सुमेर के द्वारा आंबेडकर को नकार कर वही ग़लती की है, जो यहां के अधिकांश वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी करते हैं। वे इस ख्याल में रहते हैं कि आंबेडकर को नकार कर या उन्हें साम्राज्यवाद का समर्थक प्रचार करके समाजवादी क्रान्ति कर लेंगे। यदि वे अपने ख्याल में दुरस्त होते, तो अब तक क्रान्ति हो चुकी होती। ऐसा लगता है कि वे आंबेडकर-विरोध के कारण आंबेडकर को समझना नहीं चाहते। आंबेडकर-विरोध का आधार ब्राह्मणवादी संस्कार ही हो सकता है। इसलिये वे यह भी जानना नहीं चाहते कि देश की दलित-पिछड़ी, सर्वहारा और मजदूर जनता में वामपंथी नेता क्यों अपनी पैठ नहीं बना पाते? क्या इसका कारण यह नहीं है कि वे उनके वर्ग से नहीं आते हैं? क्या राहुल सांकृत्यायन की कहानी ‘सुमेर’ इसी वर्ग चेतना की कहानी नहीं है, जो आंबेडकर को नकार कर चलती है?
मैं समझता हूँ कि यही सच है, क्योंकि 1944 में प्रकाशित राहुल की पुस्तक ‘‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’’ में भी मरकस बाबा (माक्र्स) के रास्ते का जिक्र तो है, पर यह जिक्र नहीं है कि मरकस बाबा जाति की दीवारों और अस्पृश्यता को कैसे ध्वस्त करेंगे?66 राहुल और आंबेडकर में यही एक बुनियादी फर्क है कि राहुल केवर्ल आिथक क्रान्ति की बात करते हैं, जबकि आंबेडकर का विचार है कि सामाजिक क्रान्ति के बिना कोई क्रान्ति नहीं हो सकती, न राजनैतिक और र्न आिथक।
सन्दर्भ
 1. मेरी जीवन यात्रा-(2), पृष्ठ 637
 2. नागपुर का भाषण, बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ, सातवाँ संस्करण 1969, पृष्ठ 4
 3. वही, पृष्ठ 5
 4. मेरी जीवन यात्रा-(2), पृष्ठ 153-154
 5. दिमागी गुलामी- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-2006, पृष्ठ 20
 6. वही, पृष्ठ 16-17
 7. वही, पृष्ठ 16
 8. वही, पृष्ठ 17-18
 9. वही, पृष्ठ 18-19
10. बाबा साहेब डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-1, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार की ओर से प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित, संस्करण अप्रेल 1993, पृष्ठ 89
11. वही, पृष्ठ 91
12. वही
13. वही
14. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 9
15. वही
16. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-1, पृष्ठ 92
17. वही, पृष्ठ 93
18. वही, पृष्ठ 99
19. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 5
20. डा. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम 10, एजूकेशन डिर्पामेंट, गवर्नमेंट आफ महाराष्ट्र, 1991, पृष्ठ 43
21. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 52-53
22. सोर्स मेटेरियल......वाल्यूम-1, पृष्ठ 165
23. वही, पृष्ठ 252-253
24. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 52
25. वही
26. वही, पृष्ठ 51
27. वही, पृष्ठ 53
28. वही, पृष्ठ 52
29. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-2, डा. आंबेडकर प्रतिष्ठान कल्याण मन्त्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, संस्करण दूसरा 1998, पृष्ठ 266
30. वही, पृष्ठ 267
31. वही, पृष्ठ 267-268
32. वही, पृष्ठ 264
33. वही, पृष्ठ 268
34. वही, पृष्ठ 271
35. वही, पृष्ठ 271-272
36. वही, पृष्ठ 273
37. वही, पृष्ठ 180
38. वही, पृष्ठ 181
39. वही
40. वही, पृष्ठ 193
41. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 46
42. वही, पृष्ठ 51
43. वही, पृष्ठ 47
44. वही
45. वही, पृष्ठ 46
46. वही, पृष्ठ 48
47. वही
48. सोर्स मेटेरियल आॅन......पृष्ठ 79
49. वही, पृष्ठ 106
50. दिमागी गुलामी, पृष्ठ 49
51. वही, पृष्ठ 50
52. वही
53. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-2, पृष्ठ 187
54. वही, पृष्ठ 211-212
55. वही, पृष्ठ 212
56. वही, खण्ड-9, दूसरा संस्करण 1998, पृष्ठ 49
57. वोल्गा से गंगा, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 2005, पृष्ठ 329
58. मेरी जीवन यात्रा, खण्ड-2, पृष्ठ 692
59. सोर्स मेटेरियल......पृष्ठ 253
60. डा. आंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-10, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, बम्बई, संस्करण पहला 1991, पृष्ठ 43
61. वही, पृष्ठ 110
62. वोल्गा से गंगा, पृष्ठ 334-335
63. डा. आंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-10, पृष्ठ 36, देखिए आंबेडकर की रेडियो वार्ता- ‘व्हाई इंडियन लेबर इज डिटरमिन्ड टू विन द वार’
64. वही, पृष्ठ 36 से 43
65. कृप्या देखें- ‘पाकिस्तान और दि पार्टीशन आफ इंडिया’, इन ‘डा. आंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-8, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, संस्करण पहला 1990
66. भागो नहीं (दुनिया को) बदलो- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण  2004, देखिए- अध्याय-13, ‘अछूत और सोसित’, पृष्ठ 189-199